कार्बो वेज – वानस्पतिक कोयला ( Carbo Veg ) होम्योपैथिक दवा

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व्यापक-लक्षण तथा मुख्य-रोगलक्षणों में कमी
पेट के ऊपरी भाग में वायु का प्रकोप – पुराना अजीर्ण रोग, खट्टी तथा खाली डकारें आनाठंडी हवा; पंखे की हवा
किसी कठिन रोग के पश्चात उपयोगीडकार आने से कमी
सिर्फ गर्म हालत से जुकाम; अथवा गर्म से एकदम ठंडक में आने से होने वाले रोग (जैसे, जुकाम, सिर-दर्द आदि)पांव ऊँचे कर के लेटना
हवा की लगातार इच्छा (न्यूमोनिया, दमा, हैजा आदि)लक्षणों में वृद्धि
जलन, ठंडक तथा पसीना-भीतर जलन बाहर ठंडक (जैसे, हैजा आदि में)गर्मी से रोगी को परेशानी
शरीर तथा मन की शिथिलता (रुधिर का रिसते रहना, विषैला फोड़ा, सड़ने वाला वैरीकोज़ वेन्ज, थकान आदि )वृद्धावस्था की कमजोरी
यह मृत-संजीवनी दवा कही जाती हैगरिष्ट भोजन से पेट में वायु का बढ़ जाना

 

(1) पेट के ऊपरी भाग में वायु का प्रकोप – कार्बो वेज औषधि वानस्पतिक कोयला है। हनीमैन का कथन है कि पहले कोयले को औषधि शक्तिहीन माना जाता था, परन्तु कुछ काल के बाद श्री लोविट्स को पता चला कि इसमें कुछ रासायनिक तत्त्व हैं जिनसे यह बदबू को समाप्त कर देता है। इसी गुण के आधार पर ऐलोपैथ इसे दुर्गन्धयुक्त फोड़ों पर महीन करके छिड़कने लगे, मुख की बदबू हटाने के लिये इसके मंजन की सिफारिश करने लगे और क्योंकि यह गैस को अपने में समा लेता है इसलिये पेट में वायु की शिकायत होने पर शुद्ध कोयला खाने को देने लगे। कोयला कितना भी खाया जाय वह नुकसान नहीं पहुँचाता है। परन्तु हनीमैन का कथन था कि स्थूल कोयले का यह असर चिर-स्थायी नहीं है। मुँह की बदबू यह हटायेगा परन्तु कुछ देर बाद बदबू आ जायेगी, फोड़े की बदबू में जब तक यह लगा रहेगा तभी तक हटेगी, पेट की गैस में भी यह इलाज नहीं है। हनीमैन का कथन है कि स्थूल कोयला वह काम नहीं कर सकता जो शक्तिकृत कोयला कर सकता है। कार्बो वेज पेट की गैस को भी रोकता है, विषैले, सड़ने वाले जख्म-गैंग्रीन-को भी ठीक करता है। पेट की वायु के शमन में होम्योपैथी में तीन औषधियां मुख्य हैं – वे हैं: कार्बो वेज, चायना तथा लाइको

कार्बो वेज, चायना तथा लाइकोपोडियम की तुलना – डॉ० नैश का कथन है कि पेट में गैस की शिकायत में कार्बो वेज ऊपरी भाग पर, चायना संपूर्ण पेट में गैस भर जाने पर, और लाइको पेट के निचले भाग में गैस होने पर विशेष प्रभावशाली है।

पुराना अजीर्ण रोग, खट्टी तथा खाली डकारें आना – पुराने अजीर्ण रोग में यह लाभकारी है। रोगी को खट्टी डकारें आती रहती हैं, पेट का ऊपर का हिस्सा फूला रहता है, हवा पसलियों के नीचे अटकती है, चुभन पैदा करती है, खट्टी के साथ खाली डकारें भी आती हैं। डकार आने के साथ बदबूदार हवा भी खारिज होती है। डकार तथा हवा के निकास से रोगी को चैन पड़ता है। पेट इस कदर फूल जाता है कि धोती या साड़ी ढीली करनी पड़ती है। कार्बो वेज में डकार से आराम मिलता है, परन्तु चायना और लाइको में डकार से आराम नहीं मिलता।

(2) किसी कठिन रोग के पश्चात उपयोगी – अगर कोई रोग किसी पुराने कठिन रोग के बाद से चला आता हो, तब कार्बो वेज को स्मरण करना चाहिये। इस प्रकार किसी पुराने रोग के बाद किसी भी रोग के चले आने का अभिप्राय यह है कि जीवनी-शक्ति की कमजोरी दूर नहीं हुई, और यद्यपि पुराना रोग ठीक हो गया प्रतीत होता है, तो भी जीवनी शक्ति अभी अपने स्वस्थ रूप में नहीं आयी। उदाहरणार्थ, अगर कोई कहे कि जब से बचपन में कुकुर खांसी हुई तब से दमा चला आ रहा है, जब से सालों हुए शराब के दौर में भाग लिया तब से अजीर्ण रोग से पीड़ित हूँ, जब से सामर्थ्य से ज्यादा परिश्रम किया तब से तबीयत गिरी-गिरी रहती है, जब से चोट लगी तब से चोट तो ठीक हो गई किन्तु मौजूदा शिकायत की शुरूआत हो गई, ऐसी हालत में चिकित्सक को कार्बो वेज देने की सोचनी चाहिये। बहुत संभव है कि इस समय रोगी में जो लक्षण मौजूद हों वे कार्बो वेज में पाये जाते हों क्योंकि इस रोग का मुख्य कारण जीवनी-शक्ति का अस्वस्थ होना है, और इस शक्ति के कमजोर होने से ही रोग पीछा नहीं छोड़ता।

(3) सिर्फ गर्म हालत से जुकाम; यह गर्म से एकदम ठंड में आने से होने वाले जुकाम, खांसी, सिर दर्द आदि – कार्बो वेज जुकाम-खांसी-सिरदर्द आदि के लिए मुख्य-औषधि है। रोगी जुकाम से पीड़ित रहा करता है। कार्बो वेज की जुकाम-खांसी-सिरदर्द कैसे शुरू होती है? – रोगी गर्म कमरे में गया है, यह सोच कर कि कुछ देर ही उसने गर्म कमरे में रहना है, वह कोट को डाले रहता है। शीघ्र ही उसे गर्मी महसूस होने लगती है, और फिर भी यह सोचकर कि अभी तो बाहर जा रहा हूँ-वह गर्म कोट को उतारता नहीं। इस प्रकार इस गर्मी का उस पर असर हो जाता है और वह छीकें मारने लगता है, जुकाम हो जाता है। नाक से पनीला पानी बहने लगता है और दिन-रात वह छींका करता है। यह तो हुआ गर्मी से जुकाम हो जाना। औषधियों का जुकाम शुरू होने का अपना-अपना ढंग है। कार्बो वेज का जुकाम नाक से शुरू होता है, फिर गले की तरफ जाता है, फिर श्वास-नलिका की तरफ जाता है और अन्त में छाती में पहुंचता है। फॉसफोरस की ठंड लगने से बीमारी पहले ही छाती में या श्वास-नलिका में अपना असर करती है।

जब तक कार्बो वेज के रोगी का नाक बहता रहता है, तब तक उसे आराम रहता है, परन्तु यदि गर्मी से हो जाने वाले इस जुकाम में वह ठंड में चला जाय, तो जुकाम एकदम बंद हो जाता है और सिर-दर्द शुरू हो जाता है। बहते जुकाम में ठंड लग जाने से, नम हवा में या अन्य किसी प्रकार से जुकाम का स्राव रुक जाने से सिर के पीछे के भाग में दर्द, आँख के ऊपर दर्द, सारे सिर में दर्द, हथौड़ों के लगने के समान दर्द होने लगता है। पहले जो जुकाम गर्मी के कारण हुआ था उसमें कार्बो वेज उपयुक्त दवा थी, अब जुकाम को रुक जाने पर कार्बो वेज के अतिरिक्त कैलि बाईक्रोम, कैलि आयोडाइड, सीपिया के लक्षण हो सकते हैं।

(4) हवा की लगातार इच्छा (न्यूमोनिया, दमा, हैज़ा आदि) – कार्बो वेज गर्म-मिजाज़ की है, यद्यपि कार्बो एनीमैलिस ठंडे मिजाज़ की है। गर्म-मिजाज की होने के कारण रोगी को ठंडी और पंखे की हवा की जरूरत रहती है। कोई भी रोग क्यों न हो-बुखार, न्यूमोनिया, दमा, हैजा-अगर रोगी कहे-हवा करो, हवा करो-तो कार्बो वेज को नहीं भुलाया जा सकता। अगर रोगी कहे कि मुँह के सामने पंखे की हवा करो तो कार्बो वेज, और अगर कहे कि मुँह से दूर पंखे को रख कर हवा करो तो लैकेसिस औषधि है। कार्बो वेज में जीवनी-शक्ति अत्यन्त शिथिल हो जाती है इसलिये रोगी को हवा की बेहद इच्छा होती है। अगर न्यूमोनिया में रोगी इतना निर्बल हो जाय कि कफ जमा हो जाय, और ऐन्टिम टार्ट से भी कफ नहीं निकल रहा। उस हालत में अगर रोगी हवा के लिये भी बेताब हो, तो कार्बो वेज देने से लाभ होगा। दमे का रोगी सांस की कठिनाई से परेशान होता है। उसकी छाती में इतनी कमजोरी होती है कि वह महसूस करता है कि अगला सांस शायद ही ले सके। रोगी के हाथ-पैर ठंडे होते हैं, मृत्यु की छाया उसके चेहरे पर दीख रही होती है, छाती से सांय-सांय की आवाज आ रही होती हे, सीटी-सी बज रही होती है, रोगी हाथ पर मुंह रखे सांस लेने के लिये व्याकुल होता है और कम्बल में लिपटा खिड़की के सामने हवा के लिये बैठा होता है और पंखे की हवा में बैठा रहता है। ऐसे में कार्बो वेज दिया जाता है। न्यूमोनिया और दमे की तरह हैजे में भी कार्बो वेज के लक्षण आ जाते हैं जब रोगी हवा के लिये व्याकुल हो जाता है। हैजे में जब रोगी चरम अवस्था में पहुँच जाय, हाथ-पैरों में ऐंठन तक नहीं रहती, रोगी का शरीर बिल्कुल बर्फ के समान ठंडा पड़ गया हो, शरीर के ठंडा पसीना आने लगे, सांस ठंडी, शरीर के सब अंग ठंडे-यहां तक कि शरीर नीला पड़ने गले, रोगी मुर्दे की तरह पड़ जाय, तब भी ठंडी हवा से चैन मिले किन्तु कह कुछ भी न सके-ऐसी हालत में कार्बो वेज रोगी को मृत्यु के मुख से खींच ले आये तो कोई आश्चर्य नहीं।

(5) जलन, ठंडक तथा पसीना-भीतर जलन बाहर ठंडा (जैसे, हैज़ा आदि में) – कार्बो वेज का विशेष-लक्षण यह है कि भीतर से रोगी गर्मी तथा जलन अनुभव करता है, परन्तु बाहर त्वचा पर वह शीत अनुभव करता है। कैम्फर में हमने देखा था कि भीतर-बाहर दोनों स्थानों से रोगी ठंडक अनुभव करता है परन्तु कपड़ा नहीं ओढ़ सका। जलन कार्बो वेज का व्यापक-लक्षण है – शिराओं (Veins) में जलन, बारीक-रक्त-वाहिनियों (Capillaries) में जलन, सिर में जलन, त्वचा में जलन, शोथ में जलन, सब जगह जलन क्योंकि कार्बो वेज लकड़ी का अंगारा ही तो है। परन्तु इस भीतरी जलन के साथ जीवनी-शक्ति की शिथिलता के कारण हाथ-पैर ठंडे, खुश्क या चिपचिपे, घुटने ठंडे, नाक ठंडी, कान ठंडे, जीभ ठंडी। क्योंकि शिथिलावस्था में हृदय का कार्य भी शिथिल पड़ जाता है इसलिये रक्त-संचार के शिथिल हो जाने से सारा शरीर ठंडा हो जाता है। यह शरीर की पतनावस्था है। इस समय भीतर से गर्मी अनुभव कर रहे, बाहर से ठंडे हो रहे शरीर को ठंडी हवा की जरूरत पड़ा करती है। इस प्रकार की अवस्था प्राय: हैजे आदि सांघातिक रोग में दीख पड़ती है जब यह औषधि लाभ करती है।

(6) शरीर तथा मन की शिथिलता (रुधिर का रिसते रहना, विषैला फोड़ा, सड़ने वाला वैरीकोज़ वेन्ज, थकान आदि ) – शिथिलता कार्बो वेज का चरित्रगत-लक्षण है। प्रत्येक लक्षण के आधार में शिथिलता, कमजोरी, असमर्थता बैठी होती है। इस शिथिलता का प्रभाव रुधिर पर जब पड़ता है तब हाथ-पैर फूले दिखाई देते हैं क्योंकि रुधिर की गति ही धीमी पड़ जाती है, रक्त-शिराएं उभर आती हैं, रक्त-संचार अपनी स्वाभाविक-गति से नहीं होता, वैरीकोज़ वेन्ज़ का रोग हो जाता है, रक्त का संचार सुचारु-रूप से चले इसके लिये टांगें ऊपर करके लेटना या सोना पड़ता है। रक्त-संचार की शिथिलता के कारण अंग सूकने लगते हैं, अंगों में सुन्नपन आने लगती है। अगर वह दायीं तरफ लेटता है तो दायां हाथ सुन्न हो जाता है, अगर बायीं तरफ लेटता है तो बायां हाथ सुन्न हो जाता है। रक्त-संचार इतना शिथिल हो जाता है कि अगर किसी अंग पर दबाव पड़े, तो उस जगह का रक्त-संचार रुक जाता है। रक्त-संचार की इस शिथिलता के कारण विषैले फोड़े, सड़ने वाले फोड़े, गैंग्रीन आदि हो जाते हैं जो रक्त के स्वास्थ्यकर संचार के अभाव के कारण ठीक होने में नहीं आते, जहां से रुधिर बहता है वह रक्त-संचार की शिथिलता के कारण रिसता ही रहता है।

रुधिर का नाक, जरायु, फेफड़े, मूत्राशय आदि से रिसते रहना – रुधिर का बहते रहना कार्बो वेज का एक लक्षण है। नाक से हफ्तों प्रतिदिन नकसीर बहा करती है। जहां शोथ हुई वहाँ से रुधिर रिसा करता है। जरायु से, फेफड़ों से, मूत्राशय से रुधिर चलता रहता है, रुधिर की कय भी होती है। यह रुधिर का प्रवाह वेगवान् प्रवाह नहीं होता जैसा एकोनाइट, बेलाडोना, इपिकाका, हैमेमेलिस या सिकेल में होता है। इन औषधियों में तो रुधिर वेग से बहता है, कार्बो वेज में वेग से बहने के स्थान में वह रिसता है, बारीक रक्त-वाहिनियों द्वारा धीमे-धीमे रिसा करता है। रोगिणी का ऋतु-स्राव के समय जो रुधिर चलना शुरू होता है वह रिसता रहता है और उसका ऋतु-काल लम्बा हो जाता है। एक ऋतु-काल से दूसरे ऋतु-काल तक रुधिर रिसता जाता है। बच्चा जनने के बाद रुधिर बन्द हो जाना चाहिये, परन्तु क्योंकि इस औषधि में रुधिर-वाहिनियां शिथिल पड़ जाती हैं, इसलिये रुधिर बन्द होने के स्थान में चलता रहता है, धीरे-धीरे रिसता रहता है। ऋतु-काल, प्रजनन आदि की इन शिकायतों को, तथा इन शिकायतों से उत्पन्न होनेवाली कमजोरी को कार्बो वेज दूर कर देता है। कभी-कभी जनने के बाद प्लेसेन्टा को बाहर धकेल देने की शक्ति नहीं होती। अगर इस हालत में रुधिर धीरे-धीरे रिस रहा हो, तो कार्बो वेज की कुछ मात्राएँ उसे बहार धकेल देंगी और चिकित्सक को शल्य-क्रिया करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

विषैला फोड़ा, सड़नेवाला ज़ख्म, गैंग्रीन – क्योंकि रक्त-वाहिनियां शिथिल पड़ जाती हैं इसलिये जब भी कभी कोई चोट लगती है, तब वह ठीक होने के स्थान में सड़ने लगती है। फोड़े ठीक नहीं होते, उनमें से हल्का-हल्का रुधिर रिसा करता है, वे विषैले हो जाते हैं, और जब फोड़े ठीक न होकर विषैला रूप धारण कर लेते हैं, तब गैंग्रीन बन जाती है। जब भी कोई रोग शिथिलता की अवस्था में आ जाता है, ठीक होने में नहीं आता, तब जीवनी शक्ति की सचेष्ट करने का काम कार्बो वेज करता है।

वेरीकोज़ वेन्ज – रुधिर की शिथिलता के कारण हदय की तरफ जाने वाला नीलिमायुक्त अशुद्ध-रक्त बहुत धीमी चाल से जाता है, इसलिये शिराओं में यह रक्त एकत्रित हो जाता है और शिराएँ फूल जाती हैं। इस रक्त के वेग को बढ़ाने के लिये रोगी को अपनी टांगें ऊपर करके लेटना या सोना पड़ता है। रक्त की इस शिथिलता को कार्बो वेज दूर कर देता है क्योंकि इसका काम रक्त-संचार की कमजोरी को दूर करना है।

शारीरिक तथा मानसिक थकान – शारीरिक-थकान तो इस औषधि का चरित्रगत-लक्षण है ही क्योंकि शिथिलता इसके हर रोग में पायी जाती है। शारीरिक-शिथिलता के समान रोगी मानसिक-स्तर पर भी शिथिल होता है। विचार में शिथिल, सुस्त, शारीरिक अथवा मानसिक कार्य के लिये अपने को तत्पर नहीं पाता।

(7) यह दवा मृत-संजीवनी कही जाती है – कार्बो वेज को होम्योपैथ मृत-संजीवनी कहते हैं। यह मुर्दों में जान फूक देती है। इसका यह मतलब नहीं कि मुर्दा इससे जी उठता है, इसका यही अभिप्राय है कि जब रोगी ठंडा पड़ जाता है, नब्ज़ भी कठिनाई से मिलती है, शरीर पर ठंडे पसीने आने लगते हैं, चेहरे पर मृत्यु खेलने लगती है, अगर रोगी बच सकता है तब इस औषधि से रोगी के प्राण लौट आते हैं। कार्बो वेज जैसी कमजोरी अन्य किसी औषधि में नहीं है, और इसलिये मरणासन्न-व्यक्ति की कमजोरी हालत में यह मृत-संजीवनी का काम करती है। उस समय 200 या उच्च-शक्ति की मात्रा देने से रोगी की जी उठने की आशा हो सकती है।

कार्बो वेज औषधि के अन्य-लक्षण

(i) ज्वर की शीतावस्था में प्यास, ऊष्णावस्था में प्यास का अभाव – यह एक विचित्रण-लक्षण है क्योंकि शीत में प्यास नहीं होनी चाहिये, गर्मी की हालत में प्यास होनी चाहिये। सर्दी में प्यास और गर्मी में प्यास का न होना किसी प्रकार समझ में नहीं आ सकता, परन्तु ऐसे विलक्षण-लक्षण कई औषधियों में दिखाई पड़ते है। जब ऐसा कोई विलक्षण लक्षण दीखे, तब वह चिकित्सा के लिये बहुत अधिक महत्व का होता है क्योंकि वह लक्षण रोग का न होकर रोगी का होता है, उसके समूचे अस्तित्व का होता है। होम्योपैथी का काम रोग का नहीं रोगी का इलाज करना है, रोगी ठीक हो गया तो रोग अपने-आप चला जाता है।

(ii) तपेदिक की अन्तिम अवस्था – तपेदिक की अन्तिम अवस्था में जब रोगी सूक कर कांटा हो जाता है, खांसी से परेशान रहता है, रात को पसीने से तर हो जाता है, साधारण खाना खाने पर भी पतले दस्त आते हैं, तब इस औषधि से रोगी को कुछ बल मिलता है, और रोग आगे बढ़ने के स्थान में टिक जाता है।

(iii) वृद्धावस्था की कमजोरी – युवकों को जब वृद्धावस्था की लक्षण सताने लगते हैं या वृद्ध व्यक्ति जब कमजोर होने लगते हैं, हाथ-पैर ठंडे रहते हैं, नसें फूलने लगती हैं, तब यह लाभप्रद है। रोगी वृद्ध हो या युवा, जब उसके चेहरे की चमक चली जाती है, जब वह काम करने की जगह लेटे रहना चाहता है, अकेला पड़े रहना पसन्द करता है, दिन के काम से इतना थक जाता है कि किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक श्रम उसे भारी लगता है, तब इस औषधि से लाभ होता है।

शक्ति तथा प्रकृति – यह गहरी तथा दीर्घकालिक प्रभाव करने वाली औषधि है। मात्रा की शक्ति, 6, 30, 200 (औषधि ‘गर्म’-Hot- प्रकृति के लिये है)

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1 Comment
  1. Dr G.P.Singh says

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