अण्डग्रन्थि (Testes) की बनावट और कार्य

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यह अण्डकोष (scrotum) में एक बाँयी तरफ और दूसरी दाँयी तरफ लटकी रहती है। प्रत्येक ग्रन्थि में लगभग 1000 मुड़ी हुई पतली नालियाँ होती हैं। प्रत्येक नली की लम्बाई 2 से 3 फुट होती है। यदि सच पूछा जाये तो ये अण्ड ग्रन्थियाँ इन्हीं नलियों के गुच्छे हैं। हर एक अण्डग्रन्थि की लम्बाई लगभग डेढ़ इंच, चौड़ाई एक इंच और मोटाई एक इंच से कुछ कम होती है ।

अण्ड ग्रन्थियों को शुक्र ग्रन्थि भी कहा जाता है क्योंकि इनमें शुक्र या वीर्य (Semen) बनता है जो मूत्राशय (Urinary bladder) के पिछले भाग में लगी हुई थैलियों शुक्राशय में एकत्रित होता रहता है ।

वीर्य में अनेक सूक्ष्म कीड़े होते हैं जिन्हें ‘शुक्राणु’ कहते हैं। जब यह अण्ड ग्रन्थियाँ किसी भी कारण से ‘शुक्राणु’ बनाना बन्द कर देती हैं तो शुक्र निर्जीव हो जाता है और इसके फलस्वरूप ही सन्तानोत्पत्ति का काम नहीं हो सकता है ।

इस अण्डग्रन्थि में एक आन्तरिक (भीतरी) रस भी बनता है जिनको अन्त:स्राव या ‘ओज’ कहते हैं। इस ओज का कार्य पुरुष के लैंगिक चिन्ह (Sexual Characters) को उभारना है। यह रक्त में मिलकर प्रत्येक अंग को पोषण करके मानव जीवन को शक्ति प्रदान करता है। बल, पौरुष, मेधा और तेजस्विता का यही प्रमुख आधार है।

यदि जवानी से पूर्व ही किसी मनुष्य की ये ग्रन्थियाँ निकाल दी जायें तो वह सन्तानोत्पत्ति नहीं कर सकेगा, उसका पुरुषत्त्व नष्ट हो जायेगा । उसके स्वभाव में निकम्मापन और हिजड़ापन आ जायेगा ।

जब यह ग्रन्थियाँ पूर्णरूप से नहीं बढ़ती हैं तो सम्बन्धित मनुष्य में जवानी के चिन्ह पूर्णरूप से प्रकट नहीं होते हैं अर्थात् पुरुषोचित लक्षणों का विकास नहीं होता है। उसके बगल और विट प्रदेश अर्थात् लिंग की जड़ के ऊपर वाले भाग पर बाल पैदा नहीं होते । ऐसे मनुष्य के चेहरे से बचपना टपकता है और चेहरा फीका-सा पड़ जाता है।

अण्डकोष या वृषणकोष स्थूल कलामय थैला है, इसी को scrotum कहते हैं। प्रत्येक वृषण पर उसको ढाँपने के लिए कला से बना हुआ एक ओर पुटक होता है जो अण्डधर (Tunica Vaginalis) कहलाता है । इस पुटक के दोनों स्तरों के बीच में जब जल संचित हो जाता है तो उस रोग को हाइड्रोसील कहते हैं ।

इस प्रकार वृषण ग्रन्थि दो कोषों के द्वारा सुरक्षित रहती है। ये वृषण ग्रन्थियाँ पक्षी के अण्डे के समान होती हैं । प्रत्येक वृषण ग्रन्थि के पार्श्व में अधिवृषणिका नाम का प्रायः अर्द्धचन्द्राकार एक अवयव लगा हुआ है इसी में अण्ड शिखर से निकले हुए अनेक सूक्ष्म शुक्रवह स्रोत घुसते हैं। यह वृषणिका देखने में छोटी होने लगने पर दुहरी होकर अण्ड के पार्श्व में रहती है । सावधानी से खींचकर सीधी की हुई यह शुक्र-नलिका प्राय: 13 हाथ लम्बी होती है ।

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