आमाशय क्या है – आमाशय की संरचना

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अमाशय पाचन-क्रिया का प्रधान अंग है। यह एक माँस का थैला है जिसकी आकृति ‘मशक’ से मिलती-जुलती होती है। इसके दो द्वार होते हैं। एक द्वार अन्ननली से जुड़ा रहता है जिसे हार्दिक द्वार (Cardiac orifice) कहते हैं और दूसरा द्वार आँतों से मिला रहता है जिसे पाइलोरिक द्वार (Pyloric orifice) कहते हैं । इसका मध्यभाग फण्डस (Fundus) कहलाता है। यह लगभग 12-13 इंच लम्बा और लगभग 5 इंच चौड़ा होता है।

यह हमारे शरीर में बाँयी ओर पसलियों के नीचे उदर में रहता है। इसके अन्दर कई नलीदार ग्रन्थियाँ होती हैं जिनसे ‘आमाशयिक रस’ (Gastric juice) निकला करता है, 24 घण्टों में लगभग 5-6 सेर रस निकलता है। आमाशय में भोजन लगभग 4 घण्टे ठहरा करता है। इसमें लगभग डेढ़ सेर भोजन समा सकता है (किन्तु कुछ विशेष व्यक्तियों में भोजन समाई की मात्रा कई गुना अधिक होती है)।

आमाशय की श्लैष्मिक कला के अन्दर तीन प्रकार की ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। जो ऊपरी द्वार की फण्डस की तथा पाइलोरिक द्वार की होती हैं। इन सभी ग्रन्थियों में एक प्रकार के सेल (Cell) पाये जाते हैं, जिन्हें चीफ सेल (Chief Cell) सेंट्रल सेल (Central cell) अथवा पेप्टिक सेल (Peptic Cell) कहते हैं। इन सेलों में पेप्सीनोजन तथा रेजिनोजन रहते हैं जिनसे क्रमश: पेपसीन (Pepsin) तथा रेनिन (Renin) की उत्पत्ति होती है।

आमाशय के फण्डस की ग्रन्थियों में एक विशेष प्रकार के सेल और होते हैं जिनको ‘ऑक्सीनटिक सेल’ कहते हैं। यह अन्य दो स्थानों की ग्रन्थियों में नहीं होते।

आमाशयिक रस (Gastric Juice) का संघटन :-

जल99.30%
एन्जाइम0.22%
पेपसीन, लाइपोज, रेनिन, हाइड्रोक्लोरिक एसिड (नमक का तेजाब)0.20%
क्लोराइड इन आर्गेनिक (Inorganic)0.27%
फास्फेट तथा आयनिक एसिड0.01%

इन्टिरिन्जिक फेक्टर (Intrinsic Factor) इसे रक्त निमार्ण में सहायक समझा जाता है, इसे Haemopaietic Factorभी कहते हैं।

पित्त (Bile), श्लेष्मा (Mucus) तथा नाड़ी पोषक तत्व भी होते हैं।

आमाशयिक रस की क्रिया – आमाशयिक रस प्रधानतया उसमें उपस्थित एंजाइमों द्वारा तथा हाइड्रोक्लोरिक एसिड द्वारा पाचन में सहायता करता है। यह रस जल के समान स्वच्छ, रंग रहित, प्रतिक्रिया में अम्ल और स्वाद में कुछ खट्टा-सा होता है। इसका आपेक्षिक घनत्व (1002 से 1003 तक होता है।

कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate) पर आमाशयिक रस की विशेष क्रिया नहीं होती है। हाइड्रोक्लोरिक एसिड शर्करा (Cane Sugar) को डेकस्ट्रोज (Dextrose) तथा लेवीलोज (Laevulose) में परिवर्त्तित करने में सहायता करता है।

वसा (Fat) आमाशय की गति एवं ताप से छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त हो जाती है। इसके बाद आमाशयिक रस के लायपेज नामक एज्जाइम की क्रिया होती है इससे यह फेटी एसिड (Fatty Acid) और ग्लीसरीन (Glycerine) में बदल जाता है। यह लायपेज नामक एंजाइम अधिक अम्लीय प्रक्रिया में कार्य नहीं कर पाते । अत: आमाशय में अम्लीयता बढ़ने से पूर्व ही अपना कार्य कर लेते हैं।

प्रोटीन (Protein) पर आमाशयिक रस की अधिक क्रिया होती है। प्रोटीन सर्वप्रथम हाइड्रोक्लोरिक एसिड से फूल जाती है और चिपचिपा सा श्वेत पदार्थ बना लेती है। फिर हाइड्रोक्लोरिक एसिड से यह पदार्थ सिनटोनिया या एसिड मेटाप्रोटीन में परिवर्तित हो जाता है। इस पर पुन: हाइड्रोक्लोरिक एसिड एवं पेपसिन नामक एंजाइम कार्य करते हैं । विशेष परिवर्तनों के बाद वह पेपटोन (Peptone) में बदल जाते हैं।

आमाशय रस में उपस्थित रेनिन का कार्य दूध के कजीनोजन नामक घुलनशील प्रोटीन को अघुलनशील प्रोटीन केजीन में बदलना है।

आमाशय के कार्य (Function of the Stomach)

संक्षेप में आमाशयिक रस के कार्य निम्नलिखित हैं :-

(1) हाइड्रोक्लोरिक एसिड (HCL)
(अ) प्रोटीन को फुलाकर इस योग्य बनाना कि पेपसीन कार्य कर सके।
(ब) केन शुगर (चीनी) को डेकस्ट्रोज में परिवर्तित करने में सहायता करना।

(2) पेपसिन-फूले हुए प्रोटीन को पेपटोन में बदलना।

(3) रेनिन-दूध की केजीनोजन को केजीन (Casein) में बदलना।

(4) लाइपेज-फैट को फैटी एसिड और ग्लीसरीन में बदलना।

  • आमाशयिक रस ‘रेनिन’ की क्रिया से दूध जाकर दही बन जाता है। दूध का पाचन दही बनकर ही होता है।
  • आमाशयिक रस के ‘पेप्सीन’ (Pepsin) से भोजनों की प्रोटीनों का विश्लेषण होकर उनसे पेपटोन्स बन जाते हैं । ऐसा होने से वे जल्दी ही पचने के योग्य बन जाते हैं।
  • आमाशयिक रस की क्रिया से गन्ने की शक्कर (Cane Sugar) द्राक्षोज (Dextrose) – और फ्राक्टोज (Fructose) में बदल जाती है।
  • आमाशयिक रस में वसा पिघलकर ग्लीसरीन और मज्जिकाम्ल (Fatty acids) में बदल जाती है।
  • भोजन के हानिकारक कीटाणु आमाशयिक रस की क्रिया से नष्ट हो जाते हैं।
  • भोजन के ऊपर आमाशयिक रस की क्रिया होने से वह ‘आहार-रस’ बन जाता है। यह आहार-रस आमाशय से आन्त्र में चला जाता है।

अधिक मीठा खाने पर नमकीन खाने की इच्छा क्यों होती है ?

जो मीठा हम खाते हैं उस पर प्रथम क्रिया लाला-स्त्राव के ‘टायलिन’ नामक एंजाइम की होती है । यह एंजाइम ‘क्लोरीन आयन’ (Chlorine Ions) के अभाव में कार्य नहीं कर पाता है। अत: मीठा खाने पर क्लोरीन आयन की आवश्यकता होती है जिससे टायलिन सक्रिय होकर मीठे को पचावे, इन क्लोरीन आयन की आवश्यकता हमें नमक लेने से होती है। इसलिए मीठा खाने पर नमक खाने की स्वाभाविक इच्छा उत्पन्न होती है।

आमाशयिक रस आमाशय को क्यों नहीं पचाता ?

  • आमाशयिक एपिथिलियल स्तर तथा उससे निकलने वाला म्यूकस (Mucus) स्राव को बचाते हैं।
  • कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि वहाँ के टिश्यू में क्षारीयता होती है जिससे हाइड्रोक्लोरिक एसिड की अम्लीयता नष्ट हो जाती है। अत: HCL का वहाँ पर कुछ कार्य नहीं होता ।
  • इस सम्बन्ध में तीसरा मत यह है कि आमाशयिक सेलों में कोई एंटी एंजाइम रहता है, जो कि आमाशयिक रस को उस पर क्रिया नहीं करने देता।
  • एक अन्य नोर्थरोप (Northrop) नामक प्रसिद्ध वैज्ञानिक के कथनानुसार पाचक एंजाइम जीवित सेल में प्रवृष्टि नहीं हो पाते । अत: आमाशयिक रस आमाशय के जीवित सेल को नहीं पचा सकता और यही मत अधिकांशत: वैज्ञानिकों द्वारा मान्य किया गया है।

आमाशय की गति – आमाशय के हार्दिक द्वार का कार्य भोजन की एकत्रित करना और रखना मात्र है। इस मार्ग में वास्तव में किसी प्रकार की गति नहीं होती। यह भाग सदैव स्वाभाविक संकोच की अवस्था में रहकर भोजन को नीचे की ओर धकेलता है, शेष आमाशय में पैरिस्टेलटिक कान्ट्रेक्शन होता है। यह एक मिनट में 5-6 बार होता है । पायलोरस पर सिंफगटर पायलोरस नामक मांसपेशी लगी रहती है जो कि संकुचित होकर आमाशय के इस मुख को बन्द कर देती है और शिथिल होकर उसे खोल देती है। यह माँसपेशी आमाशयगत पाचनक्रिया के समय प्रथम बहुत शिथिल होती है और प्राय: भोजन करने पर 5-6 घण्टे के बाद पूर्ण शिथिल हो जाती है जिससे भोजन आन्त्र में चला जाता है। आमाशय में भोजन रस की प्रक्रिया प्राय: अम्लीय होती है जो कि उण्डूक में पहुँचकर क्षारीय प्रतिक्रिया के कारण न्यूटरेलायज हो जाती है। बोगस नर्व आमाशय की गति को बढ़ाती है और सिम्पेथेटिक नर्व घटाती है।

आमाशय क्षुद्रान्त्र से मिला रहता है। यह लगभग 22 फुट लम्बी नलिका है जिसका व्यास लगभग डेढ़ इंच होता है। यह साँप की तरह गेंडुली मारे उदर में पड़ी रहती है। क्षुद्रान्त्र की दीवारों में अनैच्छिक मांसपेशियाँ होती हैं जो विशेष प्रकार की गति करती है (जैसे-कृमि अर्थात् कीड़े की गति होती है) इसको कृमिवत गति (Peristaltic Movement) कहा जाता है। इन पेशियों के बीच में कुछ ग्रन्थियाँ होती हैं जिनसे रस निकलता है। क्षुद्रान्त्र का अन्तिम भाग वृहदान्त्र से मिला रहता है। इस क्षुद्रान्त्र का ऊपरी वह भाग जो आमाशय से जुड़ा रहता है उसको उण्डूक, पक्वाशय या (ड्यूडिनम Duodenum) कहा जाता है । आमाशय में प्राप्त भोजन रस जिसे काइम (Chyme) कहा जाता है – वह अमाशय से इसी भाग में आता है। यह लगभग 10 इंच लम्बा होता है और अंग्रेजी अक्षर सी (C) के आकार का होता है।

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