ओपियम-अफीम (Opium)

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ओपियम का होम्योपैथिक उपयोग

(Opium homeopathic medicine in hindi )

 

लक्षण तथा मुख्य-रोगलक्षणों में कमी
सुनिर्वाचित-औषधि का फल न होनाठंड से रोगी को अच्छा लगना
कठिन रोग होने पर भी दर्द आदि तकलीफ अनुभव न करना उदाहरणार्थ – जख्म, ज्वर, मूत्ररोध आदि मेंलगातार चलने से आराम
अंगों में पक्षाधात की-सी शिथिलतालक्षणों में वृद्धि
गहरी नींद में खर्राटे का शब्द करनाभय, प्रसन्नता से रोग-वृद्धि
भय से उत्पन्न रोग – भयोत्पादक दृश्य का सामने बने रहना – भय से दस्त, मिर्गी आदि होनाउद्वेग से रोग का बढ़ना
कब्ज तथा दस्त, निद्रा तथा निद्रा-नाश – औषधि की प्राथमिक (Primary) तथा द्वितीयक (secondary) क्रिया का विवेचनगर्मी से रोग का बढ़ना
बिस्तर को अधिक गर्म अनुभव करनाअल्कोहल से रोग-वृद्धि
 पसीना आने से परेशानी

(1) सुनिर्वाचित-औषधि का फल न होना – प्राय: कहा जाता है कि अगर सुनिर्वाचित-औषधि का फल न मिले, तो सल्फ़र का प्रयोग करना चाहिये, परन्तु कई अवसरों में सल्फर के स्थान में ओपियम अधिक उपयुक्त औषधि होती है। सल्फर तब दी जानी चाहिये जब सुनिर्वाचित-औषधि किसी सोरादोष के कारण निष्फल हो रही हो। सोरा-दोष को ध्यान में रखते हुए सल्फर के अन्य लक्षण भी होने चाहिये। सोरा-दोष में सल्फर देने पर भी अगर सुनिर्वाचित-औषधि लाभ न करे, तो सोरिनम का प्रयोग करना चाहिये, परन्तु अगर कोई विशेष-लक्षण न हो, सिर्फ जीवनी-शक्ति प्रतिक्रिया न कर रही हो, तब ओपियम देना चाहिये। इस दिशा में कार्बो वेज, लॉरोसिरेसस, वेलेरियन को भी ध्यान में रखना होता है। सल्फ़र में रोगी एक स्थान में खड़ा नहीं रह सकता, खुजली या खुजली का लेपों से दब जाने का इतिहास होता है, शिकायतें बार-बार होती हैं, रोगी को प्रात: उठते ही टट्टी की तेज हाजत होती है; कार्बो वेज में पेट में गैस की शिकायत रहती है; लॉरोसिरेसस में रोगी दिल या फेफड़े की बीमारी से इतना शक्तिहीन हो जाता है कि शरीर में गर्मी बिल्कुल नहीं रहती, उसे कपड़े से लपेट कर रखना पड़ता है; वेलेरियन में हिस्टीरिया, स्नायु-रोग आदि के कारण उपयुक्त दवा के प्रति जीवन-शक्ति प्रतिक्रिया नहीं करती।

(2) कठिन रोग होने पर भी दर्द आदि तकलीफ अनुभव न करना उदाहरणार्थ – जख्म, ज्वर, मूत्ररोध आदि में – इस औषधि का विलक्षण-लक्षण यह है कि रोगी को कितनी भी तकलीफ क्यों न हो, वह कहता है कि उसे कोई कष्ट नहीं है। होम्योपैथी का सिद्धान्त यह है कि स्वस्थ-व्यक्ति में औषधि जो लक्षण उत्पन्न करती है किसी भी रोग में उन लक्षणों को वह औषधि दूर कर देती है। अफीम स्वस्थ-व्यक्ति में सुन्न भाव पैदा कर देती है। व्यक्ति को कुछ भी अनुभव नहीं होता। उसकी संवेदनशीलता मारी जाती है। इसलिये जिस रोग में भी संवेदनशीलता न रहे, उसमें ओपियम से लाभ होता है, शर्त यह है कि संवेदनशीलता का ह्रास ओपियम से ही न हुआ हो।

उदाहरणार्थ, अगर डिफ्थीरिया में, कार्बंकल में, फोड़ों में जिसमें स्वाभाविक तौर पर दर्द होना चाहिये पर किसी प्रकार का दर्द न हो, न्यूमोनिया, टाइफॉयड आदि बीमारियों में रोगी को कुछ भी अनुभूति न हो, तो ओपियम से लाभ होगा। बालक को 105 डिग्री का ज्वर हो, और वह दूसरे बच्चों के साथ खेलता फिरे, रोगी को 8-10 दिन से मूत्र न आया हो, इस बात से तो परेशान हो कि इतने दिनों से पेशाब नहीं हुआ, परन्तु उसे कष्ट किसी प्रकार का न हो, तब इस औषधि की 200 शक्ति की एक मात्रा से लाभ होता देखा गया है। मूत्र रुक जाने में यह प्रमुख औषधि है। ज्वर में बच्चा जनने के बाद अगर मूत्र न आये, तो इससे लाभ होता है।

रोगी शान्त-मुद्रा में पड़ा रहता है – कठिन-रोग में भी तकलीफ न होने का एक रूप यह भी है कि ओपियम का रोगी बिल्कुल शांत-मुद्रा में पड़ा रहता है, चाहता है कि उसे वैसे ही पड़े रहने दिया जाय, कोई न छेड़े। रुग्णा कहती है कि उसे कुछ नहीं है जब कि उसे 105-106 डिग्री का बुखार होता है। गर्मी से वह तप रही होती है, पसीने से तर, परन्तु अगर पूछे-तबीयत कैसी है, तो कहती है बिल्कुल ठीक हूं, प्रसन्न हूं, उसे किसी प्रकार का दर्द या कष्ट महसूस नहीं होता। नर्स कहती है कि रुग्णा को कई दिन से न टट्टी आयी है, न पेशाब आया है, परन्तु रुग्णा को कोई कष्ट नहीं। ऐसी हालत में ओपियम काम करता है।

कभी-कभी यह शान्त-मुद्रा ‘मूर्छा’ (Coma) में पायी जाती है। उस हालत में रोगी की पुतली मानो एक-टक केन्द्रित दिखाई देती है। मूर्छा में पुतली का एक-टक होना ओपियम का विशिष्ट लक्षण है।

(3) अंगों में पक्षाधात की-सी शिथिलता – रोगी के भिन्न-भिन्न अंगों में पक्षाघात की सी शिथिलता आ जाती है। पेट की आंतें काम नहीं करती, टट्टी नहीं आती, गुदा में सख्त, गोल-गोल, काले लेंड भरे रहते हैं जिन्हें गुदा में से चम्मच या अंगुली से ही निकाला जा सकता है। रोगी मल को निकालने के लिये जोर लगा ही नहीं सकता, गुदा-प्रदेश क्रिया-हीन हो जाता है। मूत्राशय में भी मूत्र निकालने की शक्ति नहीं रहती, मूत्र रुक जाता है। रोगी पानी पीता है तो गले के नीचे नहीं उतर सकता, पानी नाक से निकल जाता है।

(4) गहरी नींद में खर्राटे का शब्द करना – रोगी गहरी नींद में नाक से जोर-जोर के खर्राटे भरता है, यह इस औषधि का विशेष-लक्षण है। इस लक्षण में न्यूमोनिया तथा मस्तिष्क की नाड़ी के फट जाने के कारण पक्षाघात (Cerebral apoplexy) तक को ओपियम से लाभ होता है। एक बार गहरी नींद में पड़ जाने पर उसे जगा सकना कठिन हो जाता है। मस्तिष्क की नस फट जाने पर जो दिमाग में रक्त-स्राव हो जाता है उसमें रोगी चेतनाशून्य, बेहोशी सा हो जाता है, सांस बड़े-बड़े खर्राटों से आता है, जबड़ा गिर जाता है, आखें सिकुड़ जाती है, गरम पसीना आता है, प्रत्येक सांस के साथ गालें फूलकर सांस बाहर निकलता है। यह ओपियम की पूरी तस्वीर है। डॉ० नैश लिखते हैं कि इस गहरी नींद की हालत में रोगी पर रोशनी, स्पर्श, शोर-गुल या किसी वाह्य-वस्तु का प्रभाव नहीं पड़ता, इस समय होम्योपैथिक ओपियम का ही प्रभाव हो सकता है।

(5) भय से उत्पन्न रोग – भयोत्पादक दृश्य का सामने बने रहना – भय से दस्त, मिर्गी आदि होना – भय से उत्पन्न होने वाले रोगों में इससे लाभ होता है। उदाहरणार्थ, किसी के ऊपर अचानक कुत्ता झपट पड़ा, उसे भय के मारे ऐंठन होने लगी, मिर्गी का दौर पड़ने लगा, दस्त आने लगे। कई दिन, कई हफ्ते बीत जाने पर यह रोगी भय से छुटकारा पाता है। इसकी शिकायतें तब तक बनी रहती हैं जब तक रोगी के सामने भय उत्पन्न करने वाला दृश्य बना रहता है। एक गर्भवती स्त्री के सामने भय उत्पन्न करने वाली कोई घटना घटी, उसे गर्भपात की संभावना पैदा हो गई। हर समय उसके सामने भय उत्पन्न करने वाली परिस्थिति बनी रहती है इसलिये उसका रोग भी बना रहता है। इस समय ओपियम लाभ करेगा। एकोनाइट में भी भय से रोग उत्पन्न होता है, परन्तु एकोनाइट का भय बना नहीं रहता, ओपियम का भय घटना बीत जाने पर भी कई दिन तक बना रहता है। इसी प्रकार कई लोगों को तब से मिर्गी का दौर पड़ने लगता है जब से उनके जीवन में कोई भयकारक घटना घटती है, उन्हें वह घटना भूलती ही नहीं, भय बना रहता है इसलिये मिर्गी का दौर भी पड़ता रहता है। कई स्त्रियों की इस भय की घटना के कारण माहवारी रुक जाती है। ओपियम में स्मरण रखने की बात यह है कि रोग का प्रारंभ भय के कारण हुआ हो और भय की घटना बीत जाने के बाद रोगी के सामने वह घटना बार-बार आती रहती हो।

डॉ० ऐलन का कहना है कि एकोनाइट तथा ओपियम वानस्पतिक-दृष्टि से एक ही वर्ग के हैं, संभवत: दोनों में भय के लक्षण होने का यही कारण है।

(6) कब्ज तथा दस्त, निद्रा तथा निद्रा-नाश – औषधि की प्राथमिक (Primary) तथा द्वितीयक (secondary) क्रिया का विवेचन – यह औषधि कब्ज के लिये भी हैं, दस्तों के लिये भी है; नींद लाने के लिये भी है, नींद उड़ाने में लिये भी है; इस औषधि से मस्तिष्क जड़ (Dull) भी हो जाता है, मस्तिष्क तेज भी हो जाता है। ये सब परस्पर-विरोधी लक्षण इस दवा में पाये जाते हैं। जब कब्ज़ होती है तब कई दिन तक टट्टी नहीं आती, गुदा सख्त मल से भरा रहता है; भय, अचानक-हर्ष आदि उद्वेगों से दस्त आने लगते हैं, दस्त अपने-आप निकल जाते हैं, काले और बदबूदार होते हैं। रोगी नींद में पड़ा रहता है; कभी-कभी नींद पलकों पर धरी होती है परन्तु नींद नहीं आती, रोगी की सब इन्द्रियां उत्तेजित रहती है, उसे मुर्गे की आवाज, सड़क पर गाड़ियों की गड़गड़ाहट, दरवाजे का खुलना-बन्द होना, घड़ी की टिक-टिक-सब सुनाई देता है, जो शब्द या गन्ध दूसरों को पता भी न चलें, वे सब उसे अनुभव होते हैं, जहां तक मस्तिष्क का सम्बन्ध है वह जड़ भी पड़ा रहता है। यह परस्पर विरोध है।

(7) बिस्तर को अधिक गर्म अनुभव करना – रोगी बिस्तर को बहुत गर्म अनुभव करता है, बिस्तर में ठंड की जगह को तलाशता रहता है। कपड़ा नहीं ओढ़ता।

शक्ति तथा प्रकृति – 6, 30, 200 (औषधि ‘गर्म’ – प्रकृति के लिये है)

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