जीभ की रचना और कार्य

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रसनेन्द्रिय ‘जीभ’ का ही पर्यायवायी है अर्थात् जीभ अथवा रसनेन्द्रिय सभी एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। जीभ अधिकतर मांस और माँसपेशियों से बनी होती है। सारी जीभ पर श्लैष्मिक कला चढ़ी रहती है। नीचे के भाग की श्लैष्मिक-कला चिकनी तथा ‘ऊपर के भाग की खुरदुरी होती है ।

जीभ माँसपेशियों द्वारा हनुस्थि और कण्ठिकास्थि (Hyoid Bone) से मिली रहती है । उसके माँस में संकोच करने की शक्ति होती है । उसी के फलस्वरूप उसे हम अपनी इच्छा से लम्बी, चौड़ी, बड़ी और छोटी कर सकते हैं । इसको हम चाहें तो मुँह से कुछ बाहर भी निकाल सकते हैं ।

जीभ का अगला सिरा (अग्रभाग) पतला होता है किन्तु इसकी जड़ चौड़ी और मोटी होती है । इसके सिर, धड़ और किनारों में ‘स्वाद- कोष’ (Taste Buds) होते हैं जिनसे जायका (स्वाद) का पता चल जाता है । इसका सिरा, जड़ तथा दोनों ओर के किनारों में स्वाद पहचानने की शक्ति रहती है ।

जीभ के किनारों से खट्टेपन का, जड़ से कड़वाहट का और फुनगी (सिरे) से मिठास का स्वाद जाना जाता है । किन्तु यह स्वाद तभी मालूम पड़ता है जब खाई हुई वस्तु घुल जाती है । इसीलिए कोई चीज मुँह में डालते ही वह तुरन्त लार की सहायता और क्रिया से घुल जाती है जिससे जीभ को जायके का पता चल जाता है। यदि आप जीभ को खींचकर उसको रूमाल से रगड़कर सुखा डालें और फिर उस पर नमक डालें तो आपको नमक का जायका बिल्कुल नहीं आयेगा ।

खट्टा-मीठा, कडुवा-तीखा, कसैला और चरपरा यह 6 रस होते हैं । जीभ का काम इन रसों का जायका लेना है। जायका लेने के अतिरिक्त यह बोलने में भी हमारी मदद करती है । यदि जीभ न हो तो हमें न तो स्वाद का पता चलेगा और न कुछ हम बोल ही सकेंगे ।

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