पल्सेटिला – Pulsatilla ( Pulsatilla 200 )

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पल्सेटिला का होम्योपैथिक उपयोग

( Pulsatilla Homeopathic Medicine In Hindi )

यह ‘अनेक-कार्य-साधक’ औषधि है। इसके लक्षण भी बहुत हैं, इसलिये हम इस औषधि का विवरण दो भागों में विभक्त करके दे रहे हैं।

(प्रथम-भाग-व्यापक-लक्षण)

लक्षण तथा मुख्य-रोगलक्षणों में कमी
रोगिणी की शारीरिक रचना मोटी-ताजी; नक्स पतली-दुबलीठंड, ठंडी हवा से रोग घटना
लज्जाशील, नम्र, कोमल क्रन्दन-शील तथा दीर्घसूत्री स्वभावकपड़ा न ओढ़ने से आराम
क्रन्दनशील स्वभाव में पल्स, नैट्रम म्यूर, लाइको, सीपिया, इग्नेशिया, स्टैनम की तुलनाहल्का चलने-फिरने से रोग घटना
पल्सेटिला का मृदु, नक्स का उग्र, कैमोमिला का क्रोधी स्वभाव है।दिल भरकर रोने से जी हल्का हो जाना
उचित-अनुचित के संबंध में पल्स के रोगी की विभिन्न विचार-सरणीसहानुभूति प्रदर्शित करने से रोग में कमी अनुभव करना
इक-तरफा शिकायतेंलक्षणों में वृद्धि
मुंह खुश्क होने पर भी प्यास न होनागर्मी, गर्म कमरे में परेशानी
गाढ़ी, मृदु, हरी या पीली रतूबत निकलनापाँव भीग जाने से रोग होना
प्रकृति-‘खुली हवा की इच्छा’ और ‘चलने-फिरने से आराम’स्राव के रुकने से रोग-वृद्धि
गरिष्ठ-भोजन की इच्छा जो उसे रुग्ण कर देती है (पल्स तथा नक्स की पेट के लक्षणों में तुलना)सायंकाल रोग का बढ़ना
दर्द, पाखाना आदि लक्षणों की परिवर्तनशीलता और दर्द के साथ ठंड महसूस होनागरिष्ठ भोजन, घी आदि के पदार्थ खाने से बदहजमी

(1) रोगिणी की शारीरिक रचना (Constitution) – शरीर-रचना की दृष्टि से पल्स स्त्री मोटी-ताजी होती है। उसका शरीर कफ-प्रकृति का होता है। उसके शरीर को देख कर कोई नहीं कह सकता कि वह रोगिन है। पल्स मुख्य तौर पर स्त्रियों की औषधि है। इसके मुकाबले में नक्स पुरुषों की औषधि कही जाती है। नक्स का रोगी पतला-दुबला, वात-प्रकृति का कहा जा सकता है। इन दोनों के स्वभाव में भी परस्पर-विरोध है। पल्स मृदु-स्वभाव, लज्जाशील और नम्र प्रकृति की स्त्री या पुरुष होता है, नक्स का उग्र-स्वभाव होता है, परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि स्त्रियों को नक्स या पुरुषों को पल्स नहीं दिया जा सकता, लक्षणानुसार सब को सब कुछ दिया जा सकता है।

(2) लज्जाशील, नम्र, कोमल, क्रन्दनशील तथा दीर्घ-सूत्री स्वभाव – इस औषधि के प्रकृति की स्त्री लज्जाशील, नम्र, मृदु, कोमल स्वभाव की होती है, बीसियों में उसे पहचाना जा सकता है। वह इतनी मृदु-स्वभाव की और मीठे बोल की होती है कि उसके मुख से किसी के लिये कड़वी बात नहीं निकलती। उसे कोई कुछ भी कह दे वह सब सह लेती है, अत्यंत धैर्यशीला होती है। उसके नम्र, मृदु तथा कोमल स्वभाव के कारण सब उसे चाहते हैं। वह किसी से झगड़ती नहीं। पति के साथ उसका व्यवहार सदा प्रेम और सौजन्य का होता है। कई स्त्रियां कर्कशा होती हैं, पति को एक की दो सुनाती हैं, वह ऐसी नहीं होती। उसके कोमल-स्वभाव को देखकर लोग उसका नाजायज फायदा भी उठाया करते हैं। वह किसी बात में निर्णय पर नहीं पहुंच पाती। सदा सोचा करती है – क्या करुं, क्या न करुं, दृढ़ निश्चय का उसमें अभाव होता है। तुर्त-फुर्त काम कर डालना, मुस्तैदी से, बिना झिझक जो मन में आया उसी समय उसे निपटा लेना उसे नहीं आता। सब की बात बने-यही सोचा करती है, और यही कारण है कि सब उसे चाहते हैं। यह औषधि दीर्घसूत्री स्वभाव के लोगों के लिये उपर्युक्त है, और जो व्यक्ति झटपट अपना निर्णय कर डालते हैं, और हर काम में तेजी दिखलाते हैं, वे मृदु-स्वभाव के भी क्यों न हों, उनके लिये उपर्युक्त नहीं है। इस दृष्टि से मृदु-स्वभाव की अपेक्षा दीर्घ सूत्री-स्वभाव, आलसी-स्वभाव इस औषधि का मुख्य-लक्षण है।

क्रन्दनशील-स्वभाव – अगर उसमें कोई दोष है, तो यही कि वह छोटी-सी बात से भी इतना परेशान हो जाती है कि जरा-जरा सी बात पर रोया करती है। अगर कुछ नहीं भी हुआ, तो भी उसके आंसू टपका करते हैं, कभी-कभी यह समझना ही कठिन हो जाता है कि वह रो क्यों रही है। चिकित्सक के सामने अपने रोगों के लक्षण कहते-कहते वह रोने लगती है। इस प्रकार का क्रन्दनशील स्वभाव पल्स का अत्यन्त प्रमुख लक्षण है। कन्दनशील-स्वभाव की अन्य औषधियाँ भी हैं जिनका हम अभी उल्लेख करेंगे।

(3) क्रन्दनशील-स्वभाव में पल्सेटिला, नैट्रम म्यूर, लाइको, सीपिया, इग्नेशिया, स्टैनम की तुलना – इन सब औषधियों में क्रन्दनशील स्वभाव है, परन्तु इस स्वभाव के होते हुए भी इनमें निम्न भिन्नता है :

पल्सेटिला – यह स्त्री स्थूल-शरीर की, मृदु-स्वभाव की और आलसी होती है. जरा-जरा सी बात में रोया करती है। जब कोई उसके साथ सहानुभूति प्रदर्शित करता है, तब उसका जी हल्का हो जाता है। वह अपने दु:ख में सहानुभूति के लिये तरसा करती है।

नैट्रम म्यूर – रक्तहीन दुबली स्त्री या पुरुष बड़ी दु:खी, हतोत्साह होता है, परन्तु अपने दु:ख पर उसे काबू होता है। जैसा पल्सेटिला को नहीं होता। नैट्रम के दुख का प्रकाश तब होता है जब कोई उसके साथ उसके दु:ख में सहानुभूति दर्शाता है। पल्सेटिला को अपने दु:ख पर काबू नहीं होता, वह सबके सामने अपने दु:ख की गाथा सुनाया करती है। नैट्रम में ऐसा नहीं है। जब लोग उसके दु:ख मे सहानुभूति प्रदर्शित करने लगते हैं, यह कहते हैं कि किस प्रकार उसके साथ अन्याय हुआ, तब नैट्रम जार-जार आंसू बहाने लगती है, सहानुभूति प्रदर्शित करने से उसका दु:ख कम नहीं होता और उभर आता है, और वह नहीं चाहती कि कोई उसके साथ सहानुभूति प्रदर्शित करे। कभी-कभी तो लोगों को पछताना पड़ जाता है कि उन्होंने क्यों सहानुभूति दिखलाई जिससे उसका दु:ख घटने के बजाय बढ़ गया। नैट्रम इग्नेशिया की क्रौनिक है।

लाइकोपोडियम – अगर वह किसी के प्रति उपकार का कार्य करे, और उसे धन्यवाद दिया जाय, तो धन्यवाद की बात से ही उसे रुआई आ जाती है। जब वह रोती है तो धाड़े मार-मार कर रोती है। लाइको की रोगिणी शारीरिक दृष्टि से कमजोर होती है।

सीपिया – घर के काम में इसका जी नहीं लगता, उदास रहती है, रोया करती है। प्राय: इसके रोने का कारण कोई जरायु-संबंधी रोग होता है। यह सहानुभूति पसन्द नहीं करती, इसमें यह नैट्रम म्यूर के समान है।

इग्नेशिया – इसे जो दु:ख होता है उसे दबाकर रखती है, किसी से कहती नहीं, एकान्त में बैठकर खामोशी से दु:ख सहती है, आहें भरती है, और रोया करती है। आहें भरना इसका प्रधान-लक्षण है।

स्टैनम – यह भी रोया करती है, रोने से इसकी तकलीफें बढ़ जाती हैं। रोगिणी अत्यन्त कमजोर, विशेषकर छाती में अत्यन्त कमजोरी महसूस होती है।

(4) पल्सेटिला का मृदु, नक्स का उग्र, तथा कैमोलिका का क्रोधी स्वभाव होता है – तीनों की तुलना – जैसे पहले कहा जा चुका है पल्सेटिला और नक्स का स्वभाव एक-दूसरे के विपरीत है। पल्सेटिला को स्त्रियों की और नक्स को पुरुषों की औषधि कहा जाता है। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि इनमें से पल्स की शिकायतें अधिकतर स्त्रियों में, और नक्स की शिकायतें अधिकतर पुरुषों में पायी जाती हैं। पल्सेटिला के स्वभाव के विषय में डॉ० हेरिंग ने लिखा है: “मृदु, कोमल तथा दूसरों की बात मान लेना इसका स्वभाव है, किसी भी बात में रोगी रोने लगता है, शोकातुर और निराशा, हर बात में आंसू, रोने के कारण रोगी अपने लक्षण भी नहीं बता पाता। “नक्स का स्वभाव तेज होता है, उग्र स्वभाव, झगड़ालू, चिड़चिड़ा, प्रतिहिंसाशील, एक की दो सुनाने वाला। इसीलिये कहा जाता है कि इन दोनों औषधियों के स्वभाव एक-दूसरे से उल्टे हैं। कैमोमिला का स्वभाव भी तेज होता है, परन्तु उसमें क्रोध और चिड़चिड़ाहट ज्यादा पायी जाती है। उदाहरणार्थ, कान के दर्द में पल्स दें या कैमोमिला दें – इसका निर्णय कैसा होगा? दोनों दवाएं कान के दर्द में दी जाती है। कैमोमिला के कान के दर्द में बच्चा क्रोध दिखलायेगा, चिड़चिड़ाहट दिखलायेगा, किसी बात से खुश नहीं होगा, माता और नर्स पर बिगडेगा, उसे लेकर घूमते रहें तभी चुप होगा। चिड़चिड़ापन हो तो कैमोमिला से ही यह दर्द दूर होगा। परन्तु अगर बच्चा दयनीयभाव से रोता है, उसे छाती से चिपटा कर उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने की आवश्यकता होती है, अगर इससे बच्चा चुप हो जाता है, तब उसे पल्सेटिला देना होगा; जो बच्चा यूं ही चिल्लाता जाय, चिड़चिड़ाहट दिखलाये, जिस पर दया आने के स्थान पर उसे परे फेंक देने का जी करे उसे कैमोमिला देना होगा।

(5) उचित अनुचित के संबंध में पल्स के रोगी की विचित्र विचार-सरणी – उसके विचारों में अजीब गोरखधंधा पैदा हो जाता है। वह सोचने लगती है कि सभ्य-समाज में कुछ बातें करना उचित है, कुछ न करना उचित है। उदाहरणार्थ, खाने के कुछ पदार्थों के विषय में उसकी अटपटी धाराणाएं बन जाती हैं। वह सोचने लगती है कि दूध नहीं पीना चाहिये, अमुक पदार्थ नहीं खाना चाहिये, और यह सोचते-सोचते दूध पीना छोड़ देती है, कोई विशेष वस्तु खाना छोड़ देती है। रोगी सोचने लगता है कि उसे अपनी पत्नी से सहवास नहीं करना चाहिये, रोगिणी सोचने लगती है कि पति से सहवास करना घृणित कार्य है, नवयुवक या नवयुवती में विवाह के प्रति ही घृणा पैदा हो जाती है। रोगी बैठा-बैठा धार्मिक विषयों को सोचा करता है। यह विचार-सरणी बढ़ते-बढ़ते पागलपन का रूप धारण कर लेती है, और वह चुप बैठे रहता है, अगर कोई प्रश्न पूछा जाय तो उत्तर नहीं देता, देता है तो सिर्फ ‘हां’ या ‘ना’ में उत्तर देता है। इस प्रकार की विचित्र विचार-धारा पल्सेटिला के रोगी को ही जाती है।

(6) इक-तरफा शिकायतें (One-sided complaints) – इस औषधि का एक विचित्र लक्षण यह है कि इसमें इक-तरफा शिकायतें पायी जाती हैं। सिर के एक तरफ दर्द होगा, अधसीसी-दर्द, सिर के एक हिस्से में पसीना आयेगा, दूसरे में नहीं, चेहरे के एक हिस्से में पसीना होगा, दूसरे में नहीं, शरीर में बुखार होगा तो एक तरफ गर्म होगा, दूसरा हिस्सा ठीक होगा। डॉ० कैन्ट लिखते हैं कि एक स्त्री को ऊँचा ज्वर था, उसके एक हिस्से में ज्वर के साथ पसीना आ रहा था, दूसरा हिस्सा ज्वर से गर्म तो था, परन्तु उसमें पसीना नहीं आ रहा था। पल्स देने से उसका ज्वर जाता रहा। डॉ० टायलर लिखती हैं कि उनके अस्पताल में एक व्यक्ति इस बात से परेशान था कि उसके चेहरे के एक तरफ बहुत पसीना आ रहा था, चेहरे का दूसरा हिस्सा खुश्क था। दूसरी तरफ सब तरह से वह ठीक था, परन्तु इस लक्षण ने उसे चिंतित कर दिया था। उससे जब पूछा गया कि वह क्या कोई औषधि ले रहा था, तो उसने कहा कि वह पल्सेटिला बहुत दिन से ले रहा था। असल में, अनजान में वह पल्स की ‘परीक्षा-सिद्धि’ (Proving) कर रहा था। औषधि बन्द कर दी गई, और इक-तरफा पसीना आना भी बन्द हो गया। पल्सेटिला में निम्न लक्षण पाये जाते हैं – शरीर के सिर्फ दायीं और बाईं तरफ पसीना; एक हाथ या एक पांव गर्म, दूसरा ठंडा; चेहरे का एक तरफ ठंड से कांपना, दूसरी तरफ ठंड न लगना। ऐसे लक्षण विलक्षण हुआ करते हैं, और औषधि के निर्वाचन में सहायक सिद्ध होते हैं।

(7) मुंह खुश्क होने पर भी प्यास न होना – यह भी विचित्र-लक्षण है। रोगी का मुंह खुश्क हो तो प्यास लगनी चाहिये, परन्तु इस औषधि में मुंह के खुश्क होने पर भी प्यास नहीं लगती। यह लक्षण नक्स मौस्केटा में भी पाया जाता है, परन्तु उसमें मुंह में ही नहीं संपूर्ण शरीर में खुश्की पायी जाती है। मुंह इतना खुश्क होता है कि खुश्की के कारण भोजन गले के नीचे नहीं उतरता। पल्सेटिला में इतनी प्रबल खुश्की तथा सब अंगों की खुश्की नहीं होती। मर्क्यूरियस में मुंह तर रहता है परन्तु मुंह के तर रहने पर भी रोगी को बेहद प्यास लगती है एपिस में भी प्यास न होने के लक्षण हैं, परन्तु उसमें प्यास न होने के साथ शरीर में शोथ होती है।

(8) गाढ़ी, मृदु, हरी या पीली रतूबत निकलना (Thick, bland, green or yellow discharge) – इस औषधि के स्रावों की भी अपनी विशेषता है। स्राव गाढ़े, मृदु, खराश न पैदा करने वाले, न लगने वाले, हरे या पीले रंग के होते हैं। आंख, कान, नाक या खांसी के रूप में मुख से जो भी पस या थूक आदि निकलते हैं वे गाढ़े होते हैं, हरे या पीले रंग के होते हैं, और मृदु होते हैं, गलते नहीं। थूक का स्वाद कड़वा होता है। प्रदर का स्राव लगने वाला होता है – इन स्रावों में प्रदर का स्राव अपवाद रूप है और स्राव तो लगते नहीं, परन्तु पल्सेटिला के रोगी का प्रदर का स्राव लगने वाला (Excoriating) होता है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि पल्सेटिला के रोगी का प्रदर का स्राव न लगने वाला (Bland) कभी नहीं होता। इस औषधि का चरित्रगत-लक्षण तो न लगने वाला, मृदु स्राव ही है, सिर्फ प्रदर में अपवाद है। कभी-कभी अन्य लक्षणों के प्रबल रहते अगर पल्सेटिला रोगिणी को न लगने वाला प्रदर हो, तो पल्सेटिला ही दवा है क्योंकि औषधि का निर्वाचन करते हुए लक्षण समष्टि पर ही ध्यान रखना उचित है, एक लक्षण पर नहीं।

जुकाम जिसमें गाढ़ा, हरा या पीला स्राव नाक से निकले – रोगी को जुकाम के बार-बार आक्रमण होते हैं जिनमें छीकें आती हैं, नाक-बन्द हो जाता है, नाक में गाढ़ी, हरी या पीली रतूबस भरी रहती है, छीकों के साथ नाक से पानी भी बहता है। नाक का स्राव लगता नहीं, मृदु (Bland) होता है, और रोगी को जुकाम के होने पर भी बाहर, खुली हवा में टहलने से आराम अनुभव होता है, गर्म कमरे में जाने से उसका जुकाम बढ़ जाता है, तबीयत परेशान हो जाती है। बाहर ठंडी हवा में घूमने से वह सांस सरलता से ले सकता है, बन्द गर्म कमरे में नाक बन्द हो जाती है। कभी-कभी इससे उल्टा भी होता है, रोगी को बन्द कमरे में छींकें अधिक आने लगती हैं, परन्तु ऐसी हालत में अन्य लक्षणों को ध्यान में रखकर औषधि का निर्वाचन करना चाहिये। साधारण तौर पर पल्सेटिला के रोगी को जुकाम में खुली हवा अच्छी लगती है, नाक की रतूबत गाढ़ी, पीली होती है। नक्स के जुकाम में भी खुली हवा रोगी को ठीक लगती है, परन्तु उसका जुकाम पनीला होता है, रोगी भी शीत-प्रधान होता है।

(9) प्रकृति – ‘खुली हवा की इच्छा’ और ‘चलने-फिरने से आराम’ – इस औषधि की प्रकृति इसके निर्वाचन में बड़ी सहायक है। इसकी प्रकृति के मुख्य लक्षण दो हैं, एक हैं: ‘खुली हवा की इच्छा’ (Better in the open air) तथा दूसरा है: ‘चलने-फिरने से आराम’ (Better from slow movement). इन दोनों में ‘खुली हवा की इच्छा’ ज्यादा प्रमुख है।

खुली हवा की इच्छा परन्तु भीग जाने से रोग बढ़ना – रोगी को खुली हवा पसन्द होती है, खुली, ठंडी हवा में घूमने से उसकी तबीयत हरी रहती है। बन्द कमरे में उसे घुटन महसूस होती है। दर्द भी बन्द कमरे में रहने से बढ़ता है। सब प्रकार की सूजन, स्नायु-शूल, वात-रोग – इन सब में ठंडक से उसे आराम मिलता है, ठंडी वस्तुएं खाने से, ठंडे पेय पीने से, सूजन आदि पर ठंडी पट्टी लगाने से तबीयत ठीक रहती है। यद्यपि पल्सेटिला के रोगी को प्यास नहीं लगती, तो भी ठंडा पानी पीकर उसे राहत मिलती है। ठंडे भोजन को वह आसानी से पचा लेता है, गर्म भोजन से तबीयत गिर जाती है। प्यास न रहने पर भी पानी में बर्फ डालकर वह पानी पीना पसन्द करता है। पल्स का रोगी ‘ऊष्णता’ प्रधान’-Warm-blooded होता है, इसलिये वह ठंड पसन्द करता है। इसके उल्टा नक्स ‘शीत-प्रधान’ होता है।

ठंड पसन्द करने पर भी भीगने से रोग बढ़ता है – खुली हवा में सिर-दर्द, चक्कर, जुकाम, खांसी, दांत का दर्द आदि पीड़ाएं पल्स के रोगी की कम हो जाती हैं, परंतु यह ध्यान रखना चाहिये कि अगर वह भीग जाता है, तो उसके रोग के लक्षण बढ़ जाते हैं। भीग जाने से उसे पेट-दर्द का दौर पड़ सकता है, आंव आने लग सकती है, दस्त आ सकते हैं, पेशाब रुक सकता है, डिम्ब ग्रन्थियों का दर्द हो सकता है, माहवारी रुक सकती है, वात-रोग हो सकता है, जोड़ों में दर्द हो सकता है। इसलिये यह समझ लेना चाहिये कि पल्स के रोगी को ठंडी हवा तो पसन्द है, परन्तु खुश्क ठंडी पसन्द है, नमीदार ठंडी हवा नहीं। इस प्रकार औषधि की प्रकृति के भेद को समझने से ही उचित औषधि का निर्वाचन हो सकता है। औषधियों को चुनने में रोगी तथा औषधि की ‘प्रकृति’ को ध्यान में रखना, और दोनों का मेल हो जाय तभी औषधि का निश्चय करना-यही होम्योपैथी में सफलता की कुंजी है।

चलने-फिरने से आराम – रोगी को ठंडी हवा से ही नही, ठंडी हवा में धीरे-धीरे चलने-फिरने से आराम मिलता है। अगर वह न चले-फिरे, हरकत न करे, तो परेशान रहता है, तबीयत बिगड़ जाती है। उसे कुछ-न-कुछ करते रहना चाहिये, बिना कुछ किये बैठे रहना उसकी प्रकृति में नहीं है, कुछ-न-कुछ करते रहने से तबीयत बहाल रहती है। हरकत हल्की-हल्की, तेज नहीं। आराम से पड़े रहने से परेशानी, कुछ-न-कुछ करते रहना, खुली हवा में धीरे-धीरे घूमना, बन्द कमरे में रोग का बढ़ना, बन्द कमरे में तबीयत का गिरना-ये लक्षण पल्सेटिला की प्रकृति को सुन्दरता से सूचित करते हैं। धीरे-धीरे चलने-फिरने से रोगी को आराम होना। जिन थोड़ी-सी दवाओं में पाया जाता है उनमें पल्स तथा फेरम मेट मुख्य हैं। जल्दी-जल्दी हरकत से आराम महसूस होने में मुख्य औषधियां आर्सेनिक तथा ब्रोमीन हैं। आर्स के रोगी-बच्चे को तो जितनी भी तेज गति दी जाय वह थोड़ी जान पड़ती है, पल्स प्रकृति का बच्चा धीरे-धीरे की हरकत से संतुष्ट हो जाता है। क्योंकि तेज हरकत से उसका शरीर गर्म हो जाता है, और गर्मी को वह पसन्द नहीं करता, यही कारण है कि मन्द-गति उसे भाती है।

(10) गरिष्ठ-भोजन की इच्छा जो उसे रुग्ण कर देती है (पल्स तथा नक्स की पेट के लक्षणों में तुलना) – रोगी को आइसक्रीम, पेस्ट्री आदि हज्म नहीं होती, परन्तु इन्हीं वस्तुओं के लिये उसमें चाह बनी रहती है। वह आइसक्रीम या अन्य गरिष्ठ-वस्तुएं खा जाता है; जो चीजें बिगाड़ करती हैं उन्हीं के लिये ललचाया करता है, उन्हें खा लेता है, और फिर खा लेने के बाद पेट फूल जाता है। घी के पदार्थ उसे पचते नहीं, परन्तु उन्हें वह छोड़ता भी नहीं। ऐसी अवस्था में गरिष्ठ-भोजन न पचने पर इस दवा से लाभ होता है। पेट की शिकायतों में नक्स भी उत्तम औषधि है, प्राय: अपचन में नक्स, घी-दूध पसन्द करता है, पचा भी लेता है, मिर्च-मसाले ज्यादा खाता है, उन्हीं से उसका पेट बिगड़ता है; पल्स का पेट घी-चर्बी गरिष्ठ वस्तुओं को खाने से बिगड़ता है, और उन्हीं को वह खाता भी है। पल्स ठंडा खाना चाहता है, वही उसे पचता है; नक्स गर्म खाना पसन्द करता, वही उसे पचता है, ठंडा खाना वह पसन्द नहीं करता।

(11) दर्द, पाखाना आदि लक्षणों की परिवर्तनशीलता और दर्द के साथ ठंड महसूस होना – दर्द एक जोड़ से दूसरे जोड़ में चला जाता है, दर्द का लक्षण बदलता रहता है। रोगी को कभी कब्ज, कभी दस्त; पाखाने का रंग कभी कुछ, कभी कुछ; ठंड लगती है तो कभी एक-सी नहीं होती। लक्षण इतने बदलते रहते हैं कि उनका आगा-पीछा समझ नहीं आता। रोगिणी आज जिन लक्षणों की चर्चा करती है अगले दिन आकर उन लक्षणों की चर्चा न कर दूसरे ही किन्हीं लक्षणों की शिकायत करने लगती है। रक्त-स्राव कभी होता है, कभी बंद हो जाता है, फिर शुरू हो जाता है, उसका रंग भी लगातार बदलता रहता है। दस्तों का रंग कभी हरा, कभी पीला, कभी सफेद; कभी गाढ़े, कभी पनीले, कभी झागदार। लक्षणों का बदलना दर्द, पाखाना, ठंड और रक्त-स्राव तक ही सीमित नहीं रहता, यह परिवर्तनशीलता उसके स्वभाव में भी चित्रित दिखलाई देती है – रोगिन कभी चिढ़ती है, कभी रोती है, कभी बड़ा मीठा बन जाती है। लक्षणों की परिवर्तनशीलता इसका चरित्रगत लक्षण है।

(द्वितीय भाग-मुख्य-रोग)

(1) पांव भीग जाने से ऋतु-धर्म रुक जाना (पल्स तथा केलकेरिया फॉस की तुलना) – जिन कुमारियों या स्त्रियों की ऋतु-धर्म हो रहा हो, उनका पांव भीगने से, या ऋतु-धर्म में ठंडे पानी से स्नान करने से, या गीली जगह देर तक बैठने से ऋतु बन्द हो जाता है। ऋतु-धर्म के होने के स्थान में उसके रुक जाने से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लड़की सूखती जाती है, पीली पड़ जाती है, दोनों फेफड़ों के ऊपर के भाग में दर्द होने लगता है समय पर चिकित्सा न की जाय, तो क्षय-रोग होने की संभावना रहती है। ऐसी अवस्था में पल्सेटिला से ऋतु धर्म होने लगता है। डॉ० कैन्ट इस संदर्भ में लिखते हैं कि अगर लड़की का ऋतु-काल में स्नान से रज:स्राव बन्द हो जाय, उसकी माँ आकर कहे कि जब से यह ऋतु-काल में नहायी है, तब से उसका रोग प्रारंभ हुआ है, तब अगर वह लड़की हृष्ट-पुष्ट दीखती है, मोटी-ताजी है, तब तो पल्स देना चाहिये, परन्तु अगर वह लड़की पतली-दुबली है, और उसने ठंडे पानी में पाँव रख दिये हैं, या ठंडे पानी से नहा ली है, और तब उसे दर्द होने लगा है या कोई रोग तब से चला आ रहा है, तो कैलकेरिया फॉस से लाभ होगा।

(2) विलम्ब से, और थोड़े ही समय तक मासिक-धर्म होना – यह औषधि ऋतु-संबंधी रोगों में स्त्रियों की मित्र है। ऋतु विलम्ब से, और थोड़े ही समय तक पीला, कभी रंग रहित कभी जमा हुआ, कभी पतला, लक्षण बदल-बदल कर हों, मासिक से पहले पेट में दर्द की अनुभूति हो, दर्द नोचने जैसा, रोगिणी को बेचैन करे, और दर्द के साथ सर्दी की ठिठुरन हो, तब पल्सेटिला लाभ करता है। जैसा पहले कहा जा चुका है, दर्द के साथ ठिठुरन, शीत लगना इसका विशेष-लक्षण है। रोगिणी ठंडी हवा पसन्द करती है, बन्द कमरे में घुटन अनुभव करती है।

(3) प्रसव की पीड़ा में अनियमितता – प्रसव के समय का दर्द भी अगर अनियमित हो, कभी कम, कभी ज्यादा, कभी एकदम बन्द हो जाय, शुरू से ही दर्द में जोर न हो, रोगिणी खुली हवा चाहे, बन्द कमरे के दरवाजे खिड़कियां खुलवाना चाहे, हर दर्द को आवेग के साथ ठंड की झुरझुरी अनुभव हो, तो पल्स देने से दर्द में नियमितता आ जायेगी, और प्रसव सरलता से हो जायेगा।

(4) मासिक-धर्म जारी होने के समय से किसी रोग का प्रारंभ होना – अगर रोगिणी कहे कि जब से उसके मासिक-धर्म होने का समय आया, तब से मासिक की गड़बड़ी के कारण वह अस्वस्थ चली आ रही है, चेहरा पीला पड़ गया है, शरीर में रक्त नहीं रहा, क्षय-रोग के लक्षण प्रकट होने लगे हैं, खांसी-जुकाम रहता है, इनसे पीछा नहीं छूटता, तब पल्सेटिला से लाभ होता है और मासिक ठीक हो जाने से सब उपद्रव शान्त हो जाते हैं।

(5) मासिक से पहले या बीच में नकसीर फूटना – जब किसी स्त्री को मासिक-धर्म से पहले या बीच में नकसीर फूटे, मासिक के रुक जाने से, देर में होने से, थोड़ा हाने से नकसीर फूटे, या मासिक इतना हल्के रंग का आये मानो प्रदर का-सा स्राव है, और अगर रुधिर-स्राव हो, तो भी थोड़ा-बहुत काला धब्बा या रुधिर का काला-सा टुकड़ा निकले, तो पल्स लाभ करता है।

(6) चेहरे पर झूठी लालिमा जो मासिक-स्राव हो जाने से हट जाय – कई स्त्रियों के चहरे पर झूठी लालिमा आ जाती है, चेहरा फूल जाता है, आंख, पेट, पांव सब में सूजन-सी आ जाती है। इस फूल जाने से रोगिणी जूता भी नहीं पहन सकती। मासिक-स्राव होते ही यह झूठी लालिमा, अंगों की सूजन, उनका फूलना जाता रहता है। पल्स इस दशा में लाभप्रद है।

(7) कान के दर्द में बच्चों के दीनतापूर्वक चिल्लाने पर उत्कृष्ट औषधि है – यह बच्चों के कान के दर्द में अत्युत्तम है। पल्सेटिला के रोगी का कान का बहना साधारण-सी बात है। गाढ़ा, पीला मवाद निकलता है जो मृदु (Bland) होता है, जहां लगता है वहां जलन नहीं पैदा करता। कान बन्द-सा हो जाता है, कान का पर्दा फट जाने पर यह अत्युतम है। ख़सरे के परिणामस्वरूप अगर कान से सुनाई कम देने लगे, तो इस से लाभ होता है। बच्चों के कान के दर्द में कैमोमिला भी दी जाती है, परन्तु इन दोनों के मानसिक-लक्षणों में भेद है। कैमोमिला के बच्चे में क्रोध, खिजलाहट है, उसे पुचकारें तो भी चीखता है, पल्स बच्चे के रुदन को सुनकर दया आती है, वह दीनतापूर्वक चिल्लाता है और वह पुचकारने से चुप हो जाता है। कान के दर्द में भी इन मानसिक-लक्षणों के आधार पर दवा दी जानी चाहिये।

(8) जुकाम तथा खांसी में गाढ़ा, पीला या हरा स्राव; प्रात:काल तर और शाम को सूखा; बन्द नाक – जुकाम पक जाने पर जब गाढ़ा, पीला या हरा स्राव नाक से आता हो, तब पल्स तथा मर्क सौल उत्तम औषधियां हैं, परन्तु इनमें भेद यह है कि पल्स में प्यास नहीं रहती, मर्क में प्यास रहती है। पल्स में जुकाम और खांसी दोनों प्रात: काल तर रहती हैं, शाम को नाक बन्द हो जाती है और खांसी खुश्क आती है। अगर रोगी का स्वभाव मृदु हो, तो पुराने जुकाम और खांसी में निम्न-लक्षणों के रहते पल्स चमत्कारी प्रभाव करता है। लक्षण है – प्रात:काल खूब गाढ़ी, पीली या हरी रतूबत निकले, शाम को सूख जाय, रोगी को खुली हवा पसन्द हो, खुली हवा में चलने-फिरने को जी करे और नाक को किसी प्रकार की गन्ध अनुभव न हो।

(9) अाँख की गुहेरी (स्टाई) – यह औषधि आंख की ऊपर की पलकों पर गुहेरी के लिये उत्तम है। इसकी विशेषता यह है कि गुहेरी पक कर अच्छी होती रहती है। गुहेरी अच्छी होकर एक सख्त ढेला-सा पड़ जाय और बार-बार हो, तो स्टैफिसैग्रिया उत्तम है।

(10) गोनोरिया में गाढ़ा, पीला या हरा मवाद – गोनोरिया में जब गाढ़ा, पीला या हरा मवाद आता है, अगर रोगी गर्मी से परेशान होता और बाहर खुली हवा में चलना-फिरना पसन्द करता है, तब पल्स की इन दो मुख्य-प्रकृतियों (Modalities) के होने पर पल्स लाभप्रद सिद्ध होता है। अगर ठंड लगने से गोनोरिया के रोगी का दबा हुआ रोग उभर आये, या स्त्री प्रसंग से उक्त प्रकार का स्राव जारी हो जाय, तब भी यह उत्कृष्ट औषधि है।

(11) खसरे की उत्कृष्ट औषधि है – खसरे (Measles) की यह उत्कृष्ट औषधि है। इसे ‘प्रतिरोधक’ (Preventive) के तौर पर भी दिया जा सकता है। खसरे के दिनों में पल्सेटिला 30 शक्ति की मात्रा देते रहने से लाभ होता है।

(12) पल्सेटिला का सजीव तथा मूर्त-चित्रण – भूख नहीं, प्यास नहीं, रोती है, इतना रोती है कि अपनी बात भी नहीं कह सकती, सहानुभूति की भूखी, शाम को उसके लक्षण उभर आते हैं, आलसी धीरे-धीरे काम करती है, सोच-विचार भी धीरे-धीरे, किसी निर्णय पर नहीं पहुंचती, लज्जाशील, नम्र, मृदु-स्वभाव, शरीर से देखने में हृष्ट-पुष्ट, स्त्री-रोगों की शिकार, बन्द गर्म कमरे में परेशान, खुली हवा में चलने-फिरने से तबीयत हरी हो जाती है, दर्द में ठंड की झुरझुरी या सिहरन महसूस होती है, गरिष्ठ भोजन, आइसक्रीम आदि की इच्छा रहती है, परन्तु इनसे हाजमा बिगड़ जाता है, तबीयत गिर जाती है – यह है सजीव तथा मूर्त-चित्रण पल्सेटिला का।

(13) शक्ति तथा प्रकृति – पल्सेटिला 30, पल्सेटिला 200 (औषधि ‘गर्म’-प्रकृति को लिये है।

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