साइलीशिया – Silicea ( Silicea 200 )

50,170

साइलीशिया का होम्योपैथिक उपयोग

( Silicea Homeopathic Medicine In Hindi )

(1) शारीरिक रचना – पेट तथा सिर बड़ा, अन्य अंग क्षीण, हाथ-पैर दुबले, झुरियां पड़ी हुई; परिपोषण-क्रिया का अभाव – रोगी का शारीरिक गठन अपने ही प्रकार का होता है। अन्य अंगों की अपेक्षा पेट तथा सिर बड़ा होता है, हाथ-पैर दुबले-पतले, क्षीण होते हैं, चेहरे पर झुरियां पड़ी दीखती हैं। सारा शरीर क्षीणता का चित्र होता है, पीला चेहरा, रक्तहीन। रोगी का सिर सदा पसीने से तर रहता है, शरीर के अन्य भागों में पसीना नहीं आता, वह सूखा रहता है। खोपड़ी में बड़ा नाजुकपन होता है, वह सिर पर हैट नहीं रख सकता, सिर के बाल इतने नाजुक होते हैं कि वह कंघी तक नहीं कर सकता। सिर के नाजुकपन का एक दूसरा परन्तु विचित्र लक्षण यह है कि वह सिर पर हैट तो रख नहीं सकता, परन्तु सिर को ठंड से बचाने के लिये उसे हर समय कपड़े से लपेटे रहता है। साइलीशिया के रोगी के चेहरे पर झुरियां पड़ जाती है, छोटी उम्र का होते हुए भी बूढ़ों का-सा चेहरा होता है।

साइलीशिया और कैलकेरिया – दोनों को ठंड बहुत महसूस होती है, सोने पर इन दोनों में पसीने से तकिया भींग जाता है, परन्तु साइलीशिया का बच्चा अच्छा खाते हुए भी परिपोषण क्रिया के अभाव  के कारण और कैलकेरिया का बच्चा परिपोषण क्रिया के विकार के कारण परिपुष्ट नहीं हो पाता। कैलकेरिया का बच्चा थुलथुल होता है, साइलीशिया का बच्चा दुर्बल और ठिंगना होता है, कैलकेरिया के बच्चे का सिर तथा पेट दोनों बढ़ जाते हैं, साइलीशिया के बच्चे का पेट बढ़ जाता है।

(2) शारीरिक-रचना-शीत-प्रकृति का होते हुए भी कभी-कभी नवीन रोगों में भी ‘ऊष्णता-प्रधान’ (Warm) होना – रोगी मुख्य तौर पर शीत-प्रधान होता है, ठंड को बर्दाश्त नहीं कर सकता, सिर को हर समय लपेटे रखना चाहता है, गर्म कमरे में भी उसे ठंड महसूस होती है। परन्तु डॉ० कैन्ट लिखते हैं कि यह ध्यान रखने की बात है कि कभी-कभी नवीन रोगों में यह हो सकता है कि गर्मी को न सह सके। पुराने रोगों में तो वह ‘शीत-प्रधान’ ही होता है, पराने रोगों में ठंडक को बर्दाश्त नहीं कर सकता, स्वभाव से वह शीत-प्रधान ही होता है। साइलीशिया की प्रकृति (Modality) में हमने लिखा है कि गर्मी से उसका रोग घटता है – इसका यही अर्थ है कि वह शीत-प्रकृति का होता है, परन्तु शीत-प्रकृति का होते हुए भी जहाँ तक पेट का संबंध है, वह खाने-पीने के लिये गर्म वस्तुओं के स्थान में ठंडी चीजें खाना-पीना चाहता है। इस दृष्टि से साइलीशिया का ‘व्यापक-लक्षण’ (General symptom) तथा ‘प्रकृति’ (Modality) तो शीत-प्रधान होना, गर्म ‘वस्तुओं को चाहना, गर्मी पसन्द करना ही है, परन्तु नवीन रोगों में वह ठंड चाह सकता है, खाने-पीने में ठंडी वस्तु पसन्द कर सकता है, परन्तु व्यापक-लक्षण की दृष्टि से वह ‘शीत-प्रकृति’ का ही है, और क्योंकि होम्योपैथी में ‘व्यापक-लक्षण का ही विशेष महत्व है, इसलिये साइलीशिया का निर्वाचन करते हुए इसी बात को ध्यान में रखना चाहिये कि रोगी शीत-प्रधान हो। परन्तु शीत-प्रधान और शीत प्रकृति का होते हुए अगर नवीन रोगों में उसे ठंडक पसन्द हो, या खाने-पीने में वह ठंडी वस्तु पसन्द करे, तो इस में साइलीशिया देने में कोई रुकावट नहीं आनी चाहिये। औषधि का निर्वाचन करते हुए ‘व्यापक-लक्षण’ ही मुख्य वस्तु है।

(3) मानसिक-लक्षण – डरपोक, अपनी योग्यता में सन्देह परन्तु काम को हाथ में लेने पर उसे योग्यता से निबाह लेना; दिमागी काम करने वालों की मस्तिष्क की थकावट; कुछ निश्चित विचार – रोगी के मानसिक-लक्षण भी अपने ही प्रकार के विचित्र होते हैं। रोगी में हिम्मत नहीं होती। दिल कमजोर हो जाता है, घबड़ाया रहता है, हर समय हारा-हारा रहा करता है। जिस व्यक्ति में कभी भरपूर आत्म-विश्वास था, स्वतंत्र विचार कर सकता था, अपनी आवाज बुलंद कर सकता था, वह चिकित्सक को आकर कहता है कि उस में आत्मविश्वास नहीं रहा, साहस का अभाव हो गया है, उसे ऐसे लगता हे कि जनता के सम्मुख भाषण देने खड़ा होगा तो बीच में ही लड़खड़ा जायेगा। वह मानसिक-कार्य में इतना जुटा रहा है कि उसका मन का ढांचा ही टूट गया है। यह सब-कुछ होते हुए भी अगर जबर्दस्ती वह अपने काम में जुट जाय, व्याख्यान के लिये जनता के सम्मुख खड़ा हो जाय, तो बखूबी से अपना काम निभा ले जाता है, उसका आत्म-विश्वास उसमें लौट आता है, और सारा काम सफलता से हो जाता है। साइलीशिया की विचित्र मानसिक-अवस्था का रूप यह है कि व्यक्ति को अपनी असफलता का डर बना रहता है। डॉ० डनहम का कहना है कि साइलीशिया का रोगी समझा करता है कि वह कुछ नहीं कर सकता, परन्तु जब उसे कोई काम करने को बाधित कर दिया जाता है, तब वह जोश में उस काम को इतना अधिक कर डालता है कि उसे स्वयं आश्चर्य होता है कि उसने यह कार्य कैसे किया। अगर उसे कोई मानसिक कार्य करना है, तो उसे यही भय बना रहता है कि वह इस काम को सफलता-पूर्वक कर सकेगा या नहीं, यद्यपि जब वह उस काम को करने लगता है, सिर पर ही आ पड़ती है, तब वह उसे योग्यता से निबाह ले जाता है। ऐसा रोग की प्रारंभिक अवस्था में होता है। इस अवस्था में साइलीशिया उस व्यक्ति में हिम्मत बांध देगा। अगर इस अवस्था में रोग को न पकड़ा गया, तो आगे चलकर ऐसी अवस्था भी आ जाती है जब व्यक्ति काम करने के अयोग्य हो जाता है, करता है तो ठीक नहीं कर पाता। इस हालत में भी साइलीशिया देने से रोगी सुधर सकता है।

विद्यार्थियों की दिमागी कमजोरी में साइलीशिया – उदाहरणार्थ, एक विद्यार्थी बरसों मेहनत करता-करता अब अपने अध्ययन के अंतिम-काल में आ पहुंचा। इम्तिहान आ गया, परन्तु उसे डर सताने लगा कि कहीं असफल न हो जाय। वह इम्तिहान में बैठता है और सफलतापूर्वक सवालों को हल कर लेता है। परिश्रम समाप्त होने के बाद उसे ऐसी मानसिक थकान आ घेरती है कि सालों तक वह किसी धंधे के लायक नहीं रहता। उसे किसी भी धंधे में हाथ लगाने से डर लगता है, उसका मस्तिष्क थकान का शिकार हो गया है। साइलीशिया उसको एकदम खड़ा कर देगा।

व्यावसायियों की दिमागी कमजोरी में साइलीशिया – विद्यार्थियों, वकीलों, व्याख्याताओं आदि की सीमातीत मानसिक कार्य करने के परिणामस्वरूप होने वाली दिमागी कमजोरी में इस से लाभ होता है। वकील कहता है कि जब से मैंने अमुक मुकदमा दिन-रात लगकर लड़ा है, तब से दिमाग इतना थका-थका रहता है कि कुछ काम नहीं हो पाता, रात की नींद भी नहीं आती। ऐसे लोग जिनके दिमाग पर काम का बेइन्तिहा जोर पड़ जाता है, इस जोर पड़ने से जिनका दिमाग काम करने लायक नहीं रहता, उन्हें साइलीशिया देने से दिमागी थकान दूर हो जायेगी, और वह दिमाग से फिर पहले-सा काम करने लगेगा।

साइलीशिया शारीरिक तथा मानसिक बल लौटा लाता है – इस औषधि का व्यक्ति कमजोर, पीले बदन का होता है, मांस-पेशियां इसकी ढीली होती हैं, उनमें ताकत नहीं रहती। शरीर के समान मन भी असमर्थता की मूर्ति हो जाता है। उसके स्नायु-संस्थान पर शक्तिहीनता छाई रहती है। वह अधीर होता है, स्नायु-क्षीण, साहसहीन ऐसे रोगी के लिये साइलीशिया अमृत-तुल्य है, यह ढहते को खड़ा कर देता है, गिरते को उभार देता है, रोगी की बुझती जीवन-ज्वाला चमक उठती है, आशा का दीप जल उठता है, निराशा और हतोत्साह का स्थान आशा और नवोत्साह ले लेता है।

कुछ निश्चित विचार – इस औषधि का रोगी कुछ निश्चित परन्तु काल्पनिक विचारों का शिकार होता है। उदारहणार्थ, उसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसके चारों तरफ पिन बिखरे पड़े हैं, उसे डर लगता है कि कहीं उसका पांव उन पर न पड़ जाय, वह उन्हें ढूंढा करता है, न मिलने पर भी उसे यकीन नहीं आता है कि वहां कुछ नहीं है। उसे ऐसा लगता है कि वह एक व्यक्ति नहीं, दो भागों में विभक्त है; कोई जीवित वस्तु उसके कान में घुसी हुई है; उसकी आंखें रस्सियों से सिर की तरफ खिची हुई हैं; उसकी जीभ के अग्रभाग पर एक बाल है; उसके गले के भीतर एक पिन अटका पड़ा है; उसकी अंगुलियों के अगले हिस्से कागज के बने हैं। इसी प्रकार के कुछ बंधे-बंधाये, निश्चित विचारो का वह शिकार हो जाता है। होम्योपैथी में इस प्रकार के लक्षणों का बड़ा महत्व है। डॉ० क्लार्क ने इसी प्रकार के एक रोगी को जिसे इन्फ्लुएन्जा के बाद पागलपन सवार हो गया था और वह हर समय पिन ढूंढता फिरता था इस लक्षण के आधार पर साइलीशिया 30 से ठीक कर दिया और वह पिन ढूंढना भूल गया।

(4) सोने पर माथे से गर्दन तक पसीना आना परन्तु शरीर खुश्क होना; पसीने के साथ सिर-दर्द – रोगी की नींद आते ही माथे पर गर्दन तक पसीना आना शुरू हो जाता है, उसका तकिया पसीने से भींग जाता है, शरीर पर पसीना नहीं आता, वह खुश्क बना रहता है। कैलकेरिया में भी सोने पर माथे पर पसीना आता है, गर्दन पर नहीं आता। साइलीशिया का पसीना बदबूदार होता है, कैलकेरिया का खट्टी बू का। कोनायम में तो आंख बन्द करते ही पसीना आने लगता है जो इसका विशिष्ट-लक्षण है। सैम्बूकस में नींद खुलते ही पसीना आने लगता है। पल्सेटिला में शरीर के सिर्फ एक तरफ पसीना आता है। रस टॉक्स में सिर खुश्क रहता है, सिर्फ शरीर पर पसीना आता है। साइलीशिया में सिर्फ सिर और गर्दन पर पसीना आता है, शरीर खुश्क रहता है।

माथे पर पसीने के साथ सिर-दर्द – इस औषधि में सिर-दर्द के साथ माथे पर पसीने का लक्षण है। पुराना सिर-दर्द जो प्रात: या दोपहर सिर के पिछले भाग से शुरु होकर माथे तक पहुंच जाता है, रात को तेज हो जाता है, एवं दाईं आंख के ऊपर का स्नायु-शूल – इन दर्दों के साथ बहुत-सा पसीना आ जाता है और मिचली या उल्टी हो जाती है। इन लक्षणों में यह औषधि लाभ करती है। सिर पर ठंडा, चिपचिपा, बदबूदार पसीना जो चेहरे तक आये, परन्तु शरीर के नीचे के अंग खुश्क रहें या खुश्क-से ही रहें-यह इस औषधि का विशिष्ट लक्षण है। शरीर के ऊपर के हिस्से-सिर, चेहरे आदि में पसीना और नीचे का हिस्सा खुश्क रहना-इस लक्षण के साथ सिर-दर्द हो, तो इस औषधि से ठीक हो जाता है। सिर को लपेटे रखने से आराम मिलता है। रोगी को सोते समय सिर तथा गर्दन पर पसीना आता है।

(5) पांवों से बदबूदार पसीना आना, अंगुलियों के बीच में जख्म हो जाना, या पसीने के दब जाने से उत्पन्न रोग – बदबूदार पसीना इस औषधि का व्यापक-लक्षण है। सिर-माथे के पसीने के विषय में हम लिख आये हैं, सिर-माथे की तरह साइलीशिया में पैरों से भी बदबूदार पसीना आता है, अंगुलियों के बीच में जख्म हो जाते हैं। इस पसीने के लक्षण के आधार पर रोगी की किसी रोग में भी साइलीशिया दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कई बार ठंड लगने से या किसी अन्य कारण से रोगी का पावों का पसीना दब जाता है। पसीने के इस प्रकार दबने से अनेक रोग उठ खड़े हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, पावों के पसीने के दबने से ऐंठन पड़ सकती है, दौर पड़ सकते हैं, हाथ-पैर बेकार हो सकते हैं, नाक-कान से मवाद आ सकता है, ट्यूमर हो सकता है, पेट में सूजन आ सकती है, दिमागी बीमारी या मस्तिष्क की थकान हो सकती है। अगर रोगी कहे कि जब से पैर का पसीना बन्द हुआ है, तब से अमुक रोग हो गया है, तो इस औषधि के देने से पैरों का पसीना जारी हो जायेगा और रोग चला जायेगा। अगर साइलीशिया उस रोगी की ‘धातु-गत-औषधि’ होगी, तो धीरे-धीरे यह पैरों का पसीना भी चला जायेगा।

(6) घाव में मवाद धीरे-धीरे बनते रहने की हालत में, या मवाद निकलने के बाद घाव को भरने में उपयोगी है – इस औषधि के विषय में यह समझ लेना आवश्यकता है कि साइलीशिया हमारे बाल, नख, त्वचा, भीतर के अंगों के आवरण, स्नायु-मंडल, मांस-पेशी हड्डी-सब जगह पाया जाता है। जब परिपोषण-क्रिया का अभाव होता है, तब सब प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं। बाल झड़ने लगते हैं, नख टेढ़े हो जाता हैं, हड्डियां गलने-सड़ने लगती हैं, त्वचा पर फोड़े-फुन्सी हो जाते हैं, उनमें पस पड़ जाती है, कार्बंकल, बिसह (विटलो) भगंदार आदि भयंकर फोड़े भी हो जाते हैं। ये सब तकलीफें इसलिये होती हैं क्योंकि शरीर में परिपोषण-क्रिया ठीक से नहीं हो रही होती। साइलीशिया, जो नख से शिख तक हमारे प्रत्येक अंग में मौजूद है, उसका काम परिपोषण-क्रिया को ठीक बनाये रखना है। शक्तिकृत साइलीशिया, परिपोषण-क्रिया के अभाव को दूर कर देता है और शरीर का स्वास्थ्य सुधार कर फोड़े, कार्बंकल, विसहरी, भगंदर आदि को दूर कर देता है।

(7) आंख, गुदा-द्वार आदि के नासूर (Fistula) को ठीक करता है –आंख, गुदा-द्वार आदि के नासूर में यह औषधि अत्यन्त लाभप्रद पायी गई है। इसका मुख्य काम पोषण-क्रिया को ठीक कर इन घावों को भर देना है।  डॉ० नीश बार्कर ने गुदा-द्वार में भगंदर के एक रोगी के विषय में अपने अनुभव का उल्लेख करते हुए बतलाया कि उसे 20 साल से वह रोग था। भगंदर में इतना बड़ा छेद था कि वे अपनी छोटी अंगुली उसमें डाल सकते थे। रोगी को पाखाना जाते हुए भयंकर दर्द होता था। उसे उन्होंने नाइट्रिक ऐसिड दिया, कुछ लाभ नहीं हुआ। फिर लक्षण लिये गये। रोगी शीत प्रधान था, बड़े तेज मिजाज का था, छोटी बात पर ही भड़क उठता था, गुस्सा बेहद था, पेट भी खराब रहता था, कई बार टट्टी जाता था परन्तु पेट साफ नहीं होता था। इन लक्षणों पर नक्स दिया गया, परन्तु कुछ लाभ नहीं हुआ। उसके बाद फिर उसके लक्षण लिये गये। पता चला कि उसकी अंगुलियां कहीं-कहीं-से फटी हुई थीं, पस निकलता था, ठीक नहीं होता था। उस से बड़ा लक्षण यह था कि जब से उसके पांवों से पसीना आना बन्द हुआ था, तब से उसका स्वास्थ्य कभी सुधरा नहीं था। इस लक्षण के आधार पर उसे साइलीशिया 10M दिया गया जिसका चमत्कारी प्रभाव हुआ। एक दिन तो उसे असीम कष्ट हुआ, परन्तु अगले दिन से उसकी दशा सुधरने लगी। कब्ज जाता रहा, पाखाने में दर्द होना बन्द हो गया, और तीन महीने के बाद नासूर का निशान तक न रहा। पांव का पसीना रुक जाने के लक्षण पर इस औषधि ने जो चमत्कार दिखाया उससे स्पष्ट हो जाता है कि होम्योपैथी में इस प्रकार के लक्षणों का कितना महत्व है।

(8) सूई, कांटा, खप्पच, गोली आदि को निकाल देता है – यह औषधि शरीर के किसी स्थान में पड़े हुए बाह्य-तत्व को बाहर निकाल देती है, ठीक ऐसे जैसे पस को निकाल देती है। अगर शरीर में सूई चली जाय, कांटा या खप्पच चुभ जाय, गोली जा बैठे, तो इस औषधि से वह शरीर से बाहर निकल आती है। यहां तक इसका इस दिशा में प्रभाव है कि अगर शरीर में कहीं गोली जा बैठे, तो इससे वह बाहर निकल आयेगी। कभी-कभी किसी रोगी के फेफड़ों में गोली जा बैठती है। वहां उसके चारों तरफ कैलसियम का आवरण उसे घेर लेता है इसलिये गोली रोगी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती। ऐसी हालत में रोगी को साइलीशिया देना खतरनाक है क्योंकि इस से गोली अपना स्थान छोड़कर निकलने की कोशिश करेगी और रोगी का जीवन संकट में पड़ जायेगा।

(9) कब्ज, लम्बी सूखी टट्टी जो निकलते-निकलते पीछे को लौट जाती है – इस औषधि की टट्टी की विशेषता यह है कि वह अत्यन्त सूखी, सख्त तथा लम्बी होती है। गुदा-प्रदेश में देर तक अटकी पड़ी रहती है इसलिये गुदा में उसे निकालने की शक्ति भी नहीं रहती। इस में अगर श्लेष्मा भी लिपटा हो, तो भी यह आसानी से नहीं निकलती। यह निकलते-निकलते वापस लौट जाती है। डॉ० मोनरो ने इसे ‘शर्मीले-मल’ (Bashful stool) का नाम दिया है, मानो इसे बाहर आते शर्म लगती है। अन्त में, इसे हाथ की अंगुलियों से निकालना पड़ता है। इसे निकालने में रोगी को जो जोर लगाना पड़ता है उस से गुदा में घाव भी हो जाते हैं। थूजा में भी टट्टी बाहर आते-आते पीछे को लौट जाती है। सेलेनियम में भी यह लक्षण है।

(10) श्लैष्मिक-स्राव-जुकाम आदि में एकोनाइट, पल्स तथा साइलीशिया की तुलना – जुकाम या किसी भी स्थान की श्लैष्मिक झिल्ली के स्राव में तीन अवस्थाओं का हमें सामना करना पड़ता है। जुकाम की पहली अवस्था में जब श्लैष्मिक-स्राव पतला, पनीला होता है, तब एकोनाइट का लक्षण है; जब यह श्लैष्मिक-स्राव गाढ़ा, पीला तथा मृदु न लगने वाला-हो जाता है, तब पल्स का लक्षण है; जब यह श्लैष्मिक-स्राव श्लेष्मा न रह कर पस बन जाता है, सड़ जाता है, तब साइलीशिया का लक्षण होता है।

(11) तपेदिक में साइलीशिया – तपेदिक की प्रवृत्ति को दूर करने के लिये इससे उत्तम दूसरी कोई औषधि नहीं है, और जब रोग ने उग्र-रूप न धारण किया हो, तब तपेदिक की प्रवृत्ति को यह जड़-मूल से नष्ट कर देता है, तो भी अगर फेफड़े में टी.बी. की गांठ पड़ गई हो, तब साइलीशिया देना खतरनाक हो सकता है। साइलीशिया का काम विजातीय तत्व को बाहर निकाल देना है। अगर फेफड़े में टी. बी. की गांठ पड़ गई है, तो इस औषधि को देने से गांठ की जगह सूजन हो जायेगी, पस पड़ जायेगी ताकि गांठ बाहर धकेल दी जाय। अगर सारे फेफड़े में इस प्रकार की टी.बी. की गांठे पड़ गई हैं, तो साइलीशिया देने से सारा फेफड़ा पस से आक्रान्त हो जायेगा। इस औषधि का प्रयोग शुरु-शुरु में जब रोग ने स्पष्ट रूप धारण नहीं किया तभी किया जाना चाहिये। इस दशा में फॉस और सल्फर का देना भी खतरे से खाली नहीं होता।

साइलीशिया औषधि के अन्य लक्षण

(i) दांत निकलते समय साइलीशिया – प्रकृति के बालक के दस्त – दांत निकलते समय बच्चों को दस्त आया करते हैं। इनमें कैमोलिका आदि औषधि दी जाती है, परन्तु अगर बच्चा साइलीशिया की प्रकृति का है, सिर पर पसीना आता है, पेट ढोल-सा बड़ा है, खाता है पर शरीर में लगता नहीं, पुष्टिकारक खाने पर भी वजन कम होता जाता है, तो साइलीशिया देने से उसे इन दस्तों में आराम आ जायेगा।

(ii) बच्चे के दूध चुसकते समय माता को छाती या जरायु में दर्द होना या रुधिर आना – अगर बच्चे के दूध पीते समय माता को छाती या जरायु में तीखी पीड़ा का अनुभव हो, तो इस लक्षण पर माता के अनेक प्रकार के रोग इस से दूर हो जाते हैं। इस लक्षण पर कैंसर तक ठीक हुए हैं। कभी-कभी जब बच्चा माता का स्तन चुसकने लगता है तब जरायु से रुधिर आने लगता है। यह भी बड़ा महत्वपूर्ण लक्षण है। इस में यह औषधि लाभप्रद है।

(iii) गर्म से एकदम सर्द हो जाने पर दमा आदि रोग – एक चिकित्सक जिसे पसीना आ रहा था, गर्म कोट पहने था, उसने ठंडी जगह जाकर कोट उतार दिया और शरीर को ठंडा करना चाहा। थोड़ी देर में ही उसे खांसी छिड़ गई, दमे का आक्रमण हो गया, जो महीने भर चलता रहा। अनेक औषधियां दी गई, किसी से लाभ न हुआ। डॉ कैन्ट लिखते हैं कि अन्त में साइलीशिया से लाभ हुआ।

(iv) टीके का बुरा फल – टीका लगाने के बुरे फल को यह दूर करता है। कभी-कभी बच्चों को टीका लगवाने के बाद पतले दस्त आने लगते है। इनमें इससे लाभ होता है। थूजा भी टीके के बुरे फल को दूर करता है।

(v) सिर लपेट कर रखना – रोगी को सिर खुला रखने से ठंड लगती है, सिर-दर्द होता है, वह सिर को लपेट कर रखा करता है। इस प्रकार की प्रकृति के रोगी को सिर-दर्द आदि हो जाने पर इस औषधि से लाभ होता है।

(vi) नाखून टूटना – हाथ-पैर की अंगुलियों के नाखून टूट जाते हैं। अंगुली पर सूजन आ जाती है, अंगुली-अंगुली के बीच के जोड़ गलने लगते हैं। कभी-कभी नाखून अंगुली में धस जाता है, उसे चीरना पड़ता है। इन सब रोगों में यह लाभदायक औषधि है।

(vii) दूध नहीं पचता – दूध न पचने में इथूजा, नैट्रम कार्ब तथा साइलीशिया मुख्य हैं। जब बच्चे को दूध नहीं पचता तब रुटीन के तौर पर उसे प्राय: इथूजा दिया जाता है, परन्तु अगर बच्चे की शारीरिक-रचना साइलीशिया की है, तो इसी औषधि से लाभ होगा।

शक्ति तथा प्रकृति – साइलीशिया 30, साइलीशिया 200 (यह अनेक कार्य साधक औषधि है। औषधि ‘सर्द’ प्रकृति के लिये है)

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2 Comments
  1. Geet says

    What’s the prescribed dosage for Silicia Liquid 200?

    1. Dr G.P.Singh says

      May apply once in a week.

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