हृदय का रक्त एवं नाड़ी तन्त्रिकाओं से सम्बन्ध

436

रक्त संचालन – महाधमनी से दक्षिण एवं वाम कौरोनरी आर्टरी निकलती है और यह छोटी-छोटी धमनियों में विभक्त होकर हृदय के चारों ओर पहुँचकर हृदय एवं सभी अवयवों को रक्त संचरित करता है और हृदय से रक्त कौरोनरी साइनस में एकत्रित होकर अलिन्द में वापस आ जाता है।

नाड़ी तन्त्र संचार – सिम्पैथटिक एवं वागस (Vagus) द्वारा हृदय के संचालन का कार्य होता है और इन नाड़ियों की शाखाएँ साइनो एट्रियल नोड को जाती है। वागस की तन्तुएँ जो हृदय गति की दर में परिवर्तन लाती है उसे क्रोनोट्रोपिक प्रभाव (Chronotropic Effect) कहते हैं। जो संचालन का काम करता है उसे ब्रोमोट्रोपिक प्रभाव (Dromotropic Effect) कहते हैं।

हृदय की गति सिम्पैथिक एवं वागस के द्वारा बराबर नियन्त्रित होती है, जो कि पैरासिम्पैथिक एवं ओटानामिक संस्थान का एक भाग है। इसी के द्वारा हृदय के कार्य को कम किया जाता है। वागसी नाड़ी के द्वारा हृदय नियन्त्रित रूप से दबाया जाता है। परन्तु हृदय गति, उत्तेजना, क्रोध, व्यायाम आदि से बढ़ जाया करती है और मानसिक शान्ति, भय, शोक आदि में कम हो जाती है।

हृदय ध्वनि (Heart Sound) – हृदय संकोच (Systolic Contraction) और प्रसार (Diastolic) के द्वारा लुप (Lup), डुप (Dup), अर्थात् लुप और डुप के रूप में हृदय की ध्वनि होती है। शरीर क्रिया के दृष्टिकोण से हृदय 4 प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न करता है परन्तु प्रयोगात्मक दृष्टि से हृदय द्वारा मुख्यतया दो ही ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं जो कि श्रवण यन्त्र (स्टेथोस्कोप) के द्वारा आसानी से सुनी जा सकती हैं। प्रथम हृदय ध्वनि – एट्रोवेन्ट्रिकूलर कपाटों के बन्द होने से और निलय के संकोच द्वारा उत्पन्न होती है और द्वितीय हृदय ध्वनि महाधमनी एवं फुफ्फुसी धमनी के कपाटों के बन्द होने से और निलय के संकोच के बाद उत्पन्न होती है। प्रथम ध्वनि मन्द (Dull) और द्वितीय ध्वनि तीव्र (लुप-डुप) के रूप में उत्पन्न होती है। हृदय की ये ध्वनियाँ ‘मरमर’ कहलाती हैं।

सरलतम शब्दों में – लुप हृदय का पहला शब्द कहलाता है और डुप दूसरा शब्द है। साधारणतय: एक प्रौढ़ मनुष्य का हृदय 1 मिनट में 70-75 बार धड़कता है। जन्म के बच्चे का 140 बार, 11 से 14 वर्ष की आयु वालों का 75 से 85 बार धड़कता है। वृद्धावस्था में हृदय की धड़कन बढ़ जाया करती है। लम्बे मनुष्यों की अपेक्षा नाटे तथा स्त्रियों का हृदय अधिक बार धड़कता है । व्यायाम करने से भी हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। क्लेश, निर्बलता और भूखे रहने से दिल की धड़कन कम हो जाती है।

नाड़ी – यदि हम किसी धमनी (Artery) को ऊँगली से दबाएँ तो वह जीवित शरीर में उठती और गिरती दिखाई देती है। हृदय के सिकुड़ने के समय धमनी उठती है और उसके प्रसार (फैलने) के समय वह गिरती है। धमनी के इस प्रकार उठने और गिरने को धमनी स्पन्दन अथवा नाड़ी (Pulse) कहते हैं।

नाड़ी भी हृदय के धड़कन के ही समान होती है। जब हृदय रक्त को धकेलता है तो वह महाधमनी में जाता है और उसकी अनेक शाखाओं द्वारा सारे शरीर में फैल जाता है। इस धड़कन को स्पर्श किया जा सकता है। शरीर की धमनी पर हम स्पर्श द्वारा उसे ज्ञात करते हैं। हृदय की धड़कन जितनी होती है, नाड़ी के फड़कने की संख्या भी उतनी ही होती है।

इस प्रकार हृदय द्वारा हृत्कार्य चक्र के अनुसार रक्त सारे शरीर में जाता है और आता है । हृदय के वाम क्षेपक द्वारा महाधमनी (Aorta) निकलती है और इस धमनी की अनेक शाखायें-प्रशाखायें होती हुई सारे शरीर में फैल जाती हैं । ये बड़ी से छोटी होती हुई विभाजित होती हैं। ये धमनियाँ शरीर में धातुओं के नीचे रहती हैं। इनको त्वचा के ऊपर उभरा हुआ प्राय: नहीं देखा जा सकता । धमनियों में शुद्ध रक्त बहता है, इनको आर्टरीज (Arteries) के नाम से जाना जाता है । इनमें रक्त उसी गति से चलता है जिस गति से हृदय में संकोच और विस्तार होता है, इसी तरह की गति इनमें पाई जाती है। आगे चलकर ये धमनियाँ इतनी बारीक हो जाती हैं कि इनकी आकृति बाल के समान हो जाती है उनमें जो रक्त जाता है वह शरीर के कोषाओं तक पहुँचता है और फिर इन कोषाओं को पोषण देता हुआ पुनः लौटता है तो धमनियाँ छोटी से बड़ी आकार की होती चली जाती हैं। इनको कोशिकाएँ (Cappilaries) कहा जाता है।

इस प्रकार दूषित रक्त एकत्रित करती हुई फिर छोटी से बड़ी और बड़ी आकार की रक्त वाहिनियों में बदलती जाती हैं । इन रक्त को वहन करने वाली वाहिनियों को सिरा (Vain) के नाम से जाना जाता है। ये शरीर के ऊपरी भाग में ही होती है। शरीर की त्वचा के नीचे जो नीले रंग की उभरी हुई रेखायें सी दिखाई देती हैं वे सब शिरायें ही हैं। शरीर की सब शिराएँ मिलकर दो बड़ी शिराओं में परिणित हो जाती हैं जिनको उत्तरा महाशिरा और अधरा महाशिरा (सुपीरियर वेनाकावा) और (इन्फीरियर वेनाकावा) कहा जाता है । इन दोनों का रक्त हृदय के दाँयें कोष्ठक में आ जाता है । इस प्रकार फिर हृत्कार्य चक्र चलने लगता है। एक चक्र 15 सेकेण्ड में पूरा हो जाता है।

इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि हृदय का कार्य शरीर के रक्त का संवहन कराना है। वास्तव में शरीर को पोषण रक्त के द्वारा ही मिलता है। हृदय तो केवल उसको फेंकने वाला (Pump Station) है। नाड़ी की गति इस प्रकार जानें –

आयुनाड़ी की संख्या (प्रति मिनट)
बच्चे के जन्म के समय130 से 140
तीसरे वर्ष में100 से 120
छठे वर्ष में90 से 100
सात से चौदह वर्ष में80 से 90
पन्द्रह से इक्कीस वर्ष में75 से 85
इक्कीस वर्ष के ऊपर की आयु में86 से 95
वृद्धावस्था में60 से 70

 

नोट – लम्बे मनुष्यों की अपेक्षा नाटे पुरुषों और स्त्रियों की नाड़ी कुछ तेज चला करती है। मृत्यु से पूर्व भी नाड़ी की गति कुछ तेज हो जाया करती है। सामान्यतः शरीर की गर्मी डिग्री बढ़ जाने पर नाड़ी की गति प्रति मिनट 10 के अनुपात से बढ़ जाती हैं।

Ask A Doctor

किसी भी रोग को ठीक करने के लिए आप हमारे सुयोग्य होम्योपैथिक डॉक्टर की सलाह ले सकते हैं। डॉक्टर का consultancy fee 200 रूपए है। Fee के भुगतान करने के बाद आपसे रोग और उसके लक्षण के बारे में पुछा जायेगा और उसके आधार पर आपको दवा का नाम और दवा लेने की विधि बताई जाएगी। पेमेंट आप Paytm या डेबिट कार्ड से कर सकते हैं। इसके लिए आप इस व्हाट्सएप्प नंबर पे सम्पर्क करें - +919006242658 सम्पूर्ण जानकारी के लिए लिंक पे क्लिक करें।

Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.

पुराने रोग के इलाज के लिए संपर्क करें