मूत्र प्रणाली – मूत्राशय प्रबंधन [ Ureters In Hindi ]

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जैसा कि हमने ऊपर बतलाया है कि हमारे शरीर में दो मूत्र प्रणालियाँ होती हैं, एक दाहिनी ओर, दूसरी बाँयी ओर । इसकी लम्बाई 10 से 12 इंच तक होती है। इसके दो सिरे होते हैं। ऊपर का चौड़ा सिरा वृक्क से, और नीचे का पतला सिरा बस्ति-गह्वर (Pelvis) में मूत्राशय (Bladder) से मिला रहता है । वृक्क की मीनारों (Pyramids) से मूत्र-प्रणाली के चौड़े भाग में आता है और इसके द्वारा बहता हुआ मूत्राशय में चला जाता है। मूत्र प्रणाली में भी कभी-कभी ‘पथरी’ (Stone) आकर रुक जाती है जिससे रोगी को बड़ी तकलीफ होती है ।

मूत्राशय (Bladder)

मूत्र को एकत्रित करने वाला स्थान वस्ति या मूत्राशय तथा अंग्रेजी में ‘ब्लेडर’ और उर्दू में ‘मसाना’ कहा जाता है। यह एक छोटी लौकी के आकार का होता है और यह उदर के सबसे नीचे के भाग में बस्तिगुहा में भगस्थि सन्धि के पीछे रहता है। इसमें लगभग सात औंस मूत्र समा सकता है । मूत्र से भर जाने पर यह बिल्कुल गोल हो जाता है किन्तु मूत्र से खाली हो जाने पर इसकी शक्ल तिकोनी हो जाती है । मूत्राशय साधारण दशा में 5 इंच लम्बा और 3 इंच चौड़ा होता है । पुरुषों में इसके पीछे दो शुक्राशय और स्त्रियों में गर्भाशय (Uterus) रहता है ।

मूत्राशय जब मूत्र से भर जाता है तो प्रत्यावर्तन क्रिया (Reflex action) से मूत्र निकलता है । व्यवहारिकता में यह एक ऐच्छिक कार्य प्रतीत होता है । इस क्रिया में संज्ञा-वाहक नाड़ियाँ केन्द्र तथा आज्ञावाहक नाड़ियाँ सम्मिलित हैं ।

मूत्रमार्ग (Urethra)

मूत्र को बाहर निकालने वाली एक नलिका होती है जिसको ‘मूत्र प्रेषक’ (Urethra) कहते हैं । यह कलामयी एक बालिश्त भर की लम्बी नलिका है जो मूत्राशय के एकदम नीचे के भाग से (एक नली के रूप में) शुरू होती है। यह पुरुषों में 7 से 8 इंच लम्बी होती है। इसके शुरू के भाग में प्रोस्टेट-ग्रंथि (Prostate Gland) रहती है। प्रोस्टेट के आगे से यह लिंग (Penis) के निचले भाग तक रहता है। लिंग के आगे जो छेद है, उसे मूत्र द्वार (Meatus Urinarius Externus) कहते हैं। जो इसी का मूत्रमार्ग का छेद है ।

स्त्रियों का मूत्रमार्ग डेढ़ इंच लम्बा होता है और उसकी नली योनि की दीवार से मिली रहती है, इसका छिद्र योनि के छिद्र से आधा इंच ऊपर रहता है । इस प्रकार मूत्रमार्ग से मूत्र होता हुआ छिद्र के मार्ग से बाहर आ जाता है ।

मानव मूत्र : एक झलक

मूत्र मात्रा (Quantity of Urine) – हमारे वृक्कों में मूत्र लगातार बनता रहता है । साधारण अवस्था में एक स्वस्थ मनुष्य 24 घण्टे में एक से डेढ़ किलोग्राम तक मूत्र का त्याग करता है । इससे कम या अधिक होना बुरा समझा जाता है । आमतौर पर गर्मी के मौसम में मूत्र की मात्रा घट जाती है क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में बहुत-सा दूषित मल (जल) पसीने के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है। किन्तु सर्दी के दिनों में मूत्र अधिक आता है क्योंकि उन दिनों में पसीना बहुत ही कम आता है । पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को मूत्र कम मात्रा में आता है। पेशाब कम या ज्यादा कई कारणों से आता है । अजीर्ण, प्रमेह आदि रोगों में तथा मादक एवं उत्तेजक पदार्थों के सेवन से मूत्र की मात्रा बढ़ जाया करती है। नींद में मूत्र की मात्रा कम हो जाया करती है, किन्तु नींद में बाधा पहुँचते ही आँख खुल जाने पर प्राय: पेशाब करने (मूत्र त्याग) की इच्छा हो जाया करती है । हृदय के दुर्बल हो जाने पर भी मूत्र की मात्रा कम हो जाया करती है, क्योंकि दिल के कमजोर हो जाने से गुर्दों तक पर्याप्त खून नहीं पहुँच पाता है, इसलिए पेशाब कम आने लगता है ।

मूत्र का वर्ण (Colour of Urine) – स्वस्थ व्यक्ति का मूत्र स्वच्छ, हल्का पीला या भूरे रंग जैसा (Straw Colour) का होता है । मूत्र का रंग समय के अनुसार बदलता रहता है । रात भर सोने के बाद सुबह को इसका रंग गहरा होता है । गर्मी के दिनों में पसीना आने के कारण इसका रंग गहरा हो जाता है । मूत्र की मात्रा बढ़ने से रंग हल्का और मात्रा के घट जाने से रंग गहरा हो जाता है । बीमारी की हालत में मूत्र का रंग बदल जाता है, क्योंकि उस समय शरीर में धातु क्षय अधिक होता है और मूत्र के भीतर के दूषित पदार्थ अधिक मात्रा में निकलते हैं। आमतौर पर ज्वर में इसका रंग गहरा पीला या लाल-सा होता है । रात्रि की अपेक्षा दिन में मूत्र अधिक मात्रा में तथा अधिक बार आता है। रात्रि में अधिक मात्रा में मूत्र होना इस बात का परिचायक है कि वृक्कों की शक्ति क्षीण होती जा रही है ।

सही (रोग रहित मूत्र) भूसे को भिगोकर धोने के बाद उसमें से निकले हुए जल जैसा होता है । साधारणत: मूत्र पारदर्शक होता है ।

मूत्र गन्ध (Odour) – स्वस्थ मनुष्य के मूत्र में उग्र गन्ध नहीं होती है, किन्तु कुछ देर बाद उसमें अमोनिया (Ammonia) जैसी गन्ध आती है। मीठी-मीठी सी फलों की जैसी गन्ध का विशेष महत्व है, क्योंकि यह एसीटोन की उपस्थिति का परिचायक है जिसका अर्थ है कि रोगी मधुमेह (डायबिटीज) से पीड़ित है किन्तु दीर्घकालीन उपवास के कारण भी इस प्रकार की गन्ध हो सकती है। मूत्र में सड़ने जैसी गन्ध आना, मूत्र में पीप (Pus) के सड़ने के कारण हो सकता है । कभी-कभी मूत्र में मल की भी गन्ध आ सकती है जिसका कारण मल का मूत्र में मिल जाना अथवा ई० कोलाई जनित मूत्राशय का शोथ होता है । इसके अतिरिक्त विभिन्न बीमारियों में भिन्न-भिन्न गन्ध आती है।

आपेक्षिक गुरुत्व (specific Gravity) – मूत्र का आपेक्षिक गुरुत्व आमतौर पर 1015 से 1025 होता है। (जल का घनत्व 1000 लेते हैं, तब उपर्युक्त स्वास्थावस्था की उपर्युक्त मात्रा है) साधारणतयः मूत्र की मात्रा के साथ आपेक्षिक घनत्व का उल्टा सम्बन्ध रहता है अर्थात् मूत्र की मात्रा जितनी अधिक रहती है आपेक्षिक घनत्व उतना ही कम रहता है। आपेक्षिक घनत्व (गुरुत्व) का अर्थ होता है कि मूत्र जल की अपेक्षा कितना भारी है ।

प्रतिक्रिया (Reaction) – आमतौर पर मूत्र की प्रतिक्रिया अम्ल (Acid) होती है, किन्तु यह भिन्न-भिन्न समय पर बदलती भी रहती है । खाना खाने के बाद मूत्र की प्रतिक्रिया क्षारीय (Alkaline) हो जाती है जो भोजन के तीन घण्टे बाद अधिकतम होती है। यदि मूत्र कुछ समय तक रखा रहता है तो ऐमोनिया गैस के उत्पन्न होने के कारण प्रतिक्रिया क्षारीय हो सकती है । (जिसका अनुमान गन्ध से लगाया जा सकता है ।)

मूत्र के स्वाभाविक अवयव – मूत्र में 96% जल और 4% ठोस भाग (आर्गेनिक) तत्त्व होते हैं ।

मूत्र के Normal अवयव

यूरिया (Urea)2.00%
यूरिक एसिड (Uric Acid)0.50%
क्रिएटिनिन (Creatinine)0.10%
हिप यूरिक एसिड (Hippuric Acid)0.10%
ऐमोनिया (Ammonia)0.04%

साथ ही ईथरायल सल्फेट भी होता है। इनआर्गेनिक में क्लोराइड, सल्फेट, फास्फेट होते हैं । ये सभी तत्त्व शरीर में मेटाबोलिज्म (Metabolism) की प्रक्रिया में उत्पन्न होते रहते हैं ।

यूरिया – प्रोटीन का अन्तिम रूप होता है । स्वस्थावस्था में 100 से 120 ग्राम प्रोटीन लेने पर मूत्र में 33 से 35 ग्राम यूरिया निकलता है । भोजन में प्रोटीन न लेने पर भी मूत्र में यूरिया निकलता है। इसके लिए यह माना जाता है कि टिश्यू जो प्रोटीन में होते हैं उनसे ही यूरिया निकल रहा है । इस यूरिया को एन्डोजीनियस यूरिया (Endogenous Urea) कहते हैं।

यूरिक एसिड – न्युकिलियों प्रोटीन (Nue-Co-Protein) का अन्तिम भाग है । यह यकृत में बनता है ।

क्रिएटिनिन – की उत्पत्ति Tissue Protein की टूट-फूट के कारण होती है । व्यायाम के पश्चात् उसकी मात्रा मूत्र में बढ़ जाती है ।

हिप यूरिक एसिड – एक संयुक्त एमिनो एसिड है जो वृक्क में बनता है और मूत्र में निकलता है ।

एमोनिया – का उत्सर्ग वास्तव में नाइट्रोजन का उत्सर्ग है । नाइट्रोजन एमोनिया के रूप में ही निकलती है ।

नोट – जब विकृत अवस्था होती है तो मूत्र में निम्न पदाथ (Abnormal) (अस्वाभाविक अवयव) भी आने लगते हैं :-

1. एल्ब्यूमिन (albumin)
2. चीनी (Sugar)
3. एसीटोन (Acetone)
4. बाइल पिगमेंट (Bile Pigments)
5. बाइल साल्ट (Bile Salts)
6. इण्डीकेन (Indican)
7. डाई ऐसिटीक ऐसिड (Di-acetic acid)
8. रक्त (Blood)
9. पूय, पीप (Pus)
10. काइल (Chyle)
11. डायजो सब्सटेंस (Dizo-Substances)

वृक्क-शोथ तथा वृक्क के अन्य विकारों में वृक्क द्वारा प्रोटीन भी छनने लगती है । इस अवस्था को आर्गेनिक एल्ब्यूमिन यूरिया कहते हैं । जिस दशा में बिना वृक्क व्याधि के ही मूत्र में एल्ब्यूमिन आने लगे उसको फंक्शनल एल्ब्यूमिन यूरिया कहते हैं।

चीनी (ग्लूकोज रूप में) छनती है परन्तु Tubules से पुन: शोषित हो जाती है और केवल 0.002% की मात्रा में स्वस्थ अवस्था में ही निकलती है । जब इससे अधिक आने लगे तब विकार (रोग) समझना चाहिए ।

एसिटोन मूत्र में उसी समय निकलता है जबकि वसा का ठीक प्रकार जारण नहीं होता ।

रक्त उसी अवस्था में आता है जब मूत्र-मार्ग में कहीं भी आघात लगा हो, इस पथ में कहीं भी व्रण बन जावे तो मूत्र में पूय पीप (Pus) आने लगती है ।

विभिन्न आयु में मूत्र परिमाण निम्नांकित तालिका के अनुसार होता है :-

आयु परिमाण (24 घण्टे में)
जन्म के दिन0 से 2 औंस तक
जन्म के दूसरे दिन1/2 से 3 औंस तक
जन्म के 3 से 6वें दिन3 से 8 औंस तक
1 सप्ताह से 2 माह तक5 से 13 औंस तक
2 से 6 माह तक7 से 16 औंस तक
6 माह से 2 साल तक8 से 20 औंस तक
2 साल से 5 साल तक16 से 26 औंस तक
5 साल से 8 साल तक29 से 40 औंस तक
8 साल से 16 साल तक32 से 48 औंस तक
युवावस्था में40 से 50 औंस तक

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