जरायु ( गर्भाशय ) के अपने स्थान से हट जाना [ Displacement of the Uterus ]

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विवरण – जरायु के अपने स्थान से हट जाने को ‘जरायु की स्थान-च्युति’ कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है – (1) जरायु का आगे की ओर झुक जाना तथा (2) पीछे की ओर झुक जाना। पहली प्रकार की बीमारी प्राय: अविवाहिता स्त्रियों को अधिक होती है तथा दूसरी प्रकार की नव-प्रसूताओं में अधिक पाई जाती है।

पहली प्रकार की बीमारी में मासिक-स्राव के पहले से ही भग के ऊपरी भाग में दर्द, बार-बार पेशाब जाने की इच्छा, रक्त-स्राव अथवा ऋतु-स्राव में रुकावट तथा जरायु में सूजन आदि के लक्षण प्रकट होते हैं। दूसरी बार की बीमारी – कमर में दर्द, प्रजनन प्रदेश में ऐसे दबाव का अनुभव जैसे भीतर के सभी अंग बाहर निकल पड़ेंगे । शारीरिक अंगों में दर्द, थकान, अशक्तता, श्वेत-प्रदर, रक्तस्राव से चलना दूभर हो जाना, मलाशय में बेचैनी तथा ऋतुस्राव के समय दर्द आदि लक्षण प्रकट होते हैं । प्रदर की शिकायत प्राय: बनी रह कर गर्भस्थिति असम्भव हो जाती है ।

अविवाहिता में उक्त रोग होने के प्रमुख कारण हैं – भारी वस्तुएँ उठाना, मल-त्याग के समय अधिक देर तक कुंथना, जुलाब लेते रहना, कपड़े कसकर बाँधना, उछल-कूद करना तथा बवासीर की बीमारी आदि । विवाहिता स्त्रियों को यह रोग होने के मुख्य कारण हैं – अत्यधिक विषयभोग, प्रसव के बाद शीघ्र उठ बैठना तथा परिश्रम करना, वमन तथा चोट लगना आदि ।

चिकित्सा – उक्त दोनों ही प्रकार की बीमारी में निम्नलिखित औषधियाँ दें :-

सिपिया 12, 30 – यह इस बीमारी की उत्तम औषध है । विशेषकर नीचे की ओर भार का अनुभव होने पर श्रेष्ठ लाभ करती है । भीतरी अंगों के बाहर निकल पड़ने जैसी अनुभूति में रुग्णा द्वारा अपनी दोनों जाँघों को आपस में सटा लेना, कब्ज, श्वास-कष्ट तथा खुजली, काला, पीला, नीला प्रदर-स्राव – इन लक्षणों में लाभकर है । यदि इसे 1M की शक्ति में हर पन्द्रहवें दिन अथवा महीने में एक बार या C. M. की शक्ति में दो महीने में एक बार दिया जाय तो अधिक लाभ होने की आशा की जा सकती है ।

फ्रैक्सिनस अमेरिकाना Q – भीतरी अंगों के बाहर निकल पड़ने जैसी अनुभूति में यह औषध भी लाभ करती हैं । नीचे की ओर दबाव का अनुभव एवं पतला तथा लगने वाला प्रदर स्राव – इन लक्षणों में इसे 10 से 20 बूंद तक की मात्रा में दिन में तीन बार देना चाहिए ।

टिलिया युरोपा 6 – जाँघों के जोड़ के नीचे दबाव का अनुभव, भीतरी अंगों के धकेल जाने के कारण बाहर निकल पड़ने की अनुभूति, गुदा तथा जरायु पर दबाव, चलते समय अत्यधिक लसदार प्रदर-स्राव एवं गरम पसीना आना आदि लक्षणों में हितकर है ।

लिलियम टिग्रिना 30, 200 – योनि के भीतरी अवयवों के दबाव के अनुभव के साथ ही मल-त्याग की हाजत का होना, परन्तु लेटकर आराम करने से यह अनुभूति न होना, जरायु का सामने की ओर झुक जाना तथा जननेन्द्रिय के बाह्य-भाग में खुजली होना-इन लक्षणों में यह लाभकर है। इसे 30 शक्ति में दिन में दो बार तथा उच्च-शक्ति में सप्ताह में एक बार देना चाहिए ।

हैलोनियस 6 – शरीरिक-अशक्तता के कारण दबाव की स्थान-च्युति, वस्ति-गहवर में कमजोरी के कारण भार का अनुभव एवं स्नायविकता के कारण रोगिणी को अपने ही गर्भाशय की अनुभूति-इन लक्षणों में लाभकर है।

नक्स-वोमिका 30 – ऋतुस्राव के समय दर्द, बार-बार मल-त्याग की इच्छा तथा हर बार थोड़ा मल आना-इन लक्षणों में इसे दें। यह दोनों प्रकार की बीमारियों में हितकर है ।

पोडोफाइलम 6 – जरायु की स्थान-च्युति के साथ ही यदि गुदा-भ्रन्श भी हो तो यह औषध विशेष लाभकर है । प्रसव के बाद होने वाले कष्ट में हितकर है ।

बेलाडोना 20 – पेट के सभी यन्त्रों का जननेन्द्रिय-मार्ग से बाहर निकल पड़ने की अनुभूति, एक नितम्ब से दूसरे नितम्ब तक काटने जैसा दर्द तथा मासिक-स्राव में अत्यन्त दुर्गन्ध-इन लक्षणों में लाभकर है।

आर्निका 1M – चोट आदि लगने के कारण हुई जरायु की स्थान-च्युति में यदि रुग्णा सीधी न चल सके तो इसका प्रयोग करना चाहिए ।

लैकेसिस 30 – यदि रजोरोध-काल में जरायु की स्थान-च्युति हुई हो तो इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।

विशेष – इनके अतिरिक्त लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभकर हैं :- कास्टिकम 30, स्टैनम 6, आरम-म्यूर-नेट 3x वि०, सिमिसिफ्यूगा 1x, कैल्केरिया-फॉस 12x वि०, सिकेल 6 तथा फेरम-आयोड 3x वि० ।

जरायु के अन्य उपसर्ग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभकर हैं :-

जरायु में अत्यधिक रक्त-संचय – बेलाडोना 3, लिलियमटिग 6, 30, विरेट्रम-विरिडि 2x तथा सैबाइना 3x ।

जरायु का फूल उठना – यह बीमारी प्राय: वृद्ध अथवा अनेक बच्चों वाली स्त्रियों को होती है। इसके लिए सीपिया 6 अथवा आरम-म्यूर 6x वि० श्रेष्ठ हैं।

जरायु में दर्द – सिमिसिफ्यूगा 3x तथा मैग्नेशिया-म्यूरियेटिका 6 ।

जरायु का सड़ना – कार्बो-वेज 6, 30, क्रियोजोट 6, आर्सेनिक 6 ।

जरायु का निकलना – हैलोनियास 6 ।

कैलकेरिया कार्ब 6, 30 – पुरानी बीमारी में अधिक स्राव होने पर।

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