फेरम मेटेलिकम – Ferrum Metallicum

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लक्षण तथा मुख्य-रोगलक्षणों में कमी
रक्त की कमी के साथ झूठ रक्तिमा (Anemia with Plethora)धीरे-धीरे घूमने से आराम
शरीर के जीवन-प्रद-रसों की हानि से रोग होनागर्मी के दिनों में आराम
गर्भावस्था में बिना मिचली के भोजन को जैसे-का-तैसा वमन कर देनालक्षणों में वृद्धि
कभी अत्यन्त भूख, कभी भूख न होनाविश्राम से रोग-वृद्धि
बच्चों में मूत्र का टपकते रहनानीचे की ओर जाने से वृद्धि
बहते पानी को देखकर चक्कर आनातेज हरकत से रोग-वृद्धि
रजोधर्म के शुरू होने पर बीच में 2-3 दिन छोड़कर रुधिर चलनामध्य-रात्रि में रोग-वृद्धि
शीत-प्रधानता तथा विश्राम से रोग-वृद्धि की प्रकृतिबहते पानी को देखने से वृद्धि

(1) रक्त की कमी के साथ झूठी रक्तिमा – रक्त की कमी के कारण रोगी का चेहरा फीका या पीला पड़ जाता है। चेहरे के इस प्रकार फीके या पीला पड़ जाने के दो कारण हो सकते हैं : या तो रोगी पौष्टिक-पदार्थों का शरीर में समीकरण न कर सकता हो, भोजन उसे लगता न हो; या रक्त-स्राव के कारण अथवा शुद्ध हवा, प्रकाश तथा पौष्टिक-भोजन न मिलने के कारण उसके रुधिर में कोई कमी आ गई हो। सिर्फ इन दो लक्षणों के आधार पर फेरम देना होम्योपैथी के सिद्धान्त के विरुद्ध है। अगर होम्योपैथी के सिद्धान्त के आधार पर इस दवा को देना हो, तो इसे तब देना चाहिये जब रक्त की कमी के साथ रक्त का भिन्न-भिन्न अंगों में वितरण ठीक न हो। उदाहरणार्थ, रोगी के गाल सुर्ख हों, गालों की लाली उसके उत्तम स्वास्थ्य का प्रतीक है, परन्तु इस नकली लाली के बावजूद उसके होठों के आस-पास फीकापन और पीलापन हो, अथवा उसका पीला और कान्तिहीन चेहरा जरा-सी उत्तेजना में गुलाबी हो उठे। साधारण तौर पर चेहरा फीका रहता हो, परन्तु कोई मित्र आ जाय, गर्म कमरे में प्रवेश होने पर, किसी से दुत्कारे जाने पर, शारीरिक या मानसिक परिस्थिति में जरा-से भी परिवर्तन आने पर उस फीके चेहरे पर क्षण भर के लिये लाली दौड़ जाय। वह कमजोर होता है, क्षीण-काय, उसका हृदय जोर से धड़कता है, सांस चढ़ जाता है, जरा-से परिश्रम से हांपने लगता है, किसी काम को कर नहीं पाता, आराम से पड़ा रहना चाहता है, परन्तु क्योंकि गालों पर कभी उक्त परिस्थितियों में लाली दौड़ जाती है इसलिये उसे कोई कमजोर कहने को तैयार नहीं होता। यह झूठी लाली है जिसके लिये फेरम उपयुक्त औषधि है। ऐलोपैथ तो इस कमजोरी को देखकर ही फेरम दे देते हैं, होम्योपैथी में ऐसा नहीं है, इसमें उक्त लक्षणों पर ही यह दवा दी जाती है।

नव-यौवन के समय लड़कियों की रक्तहीनता – इस औषधि का उन लड़कियों पर आश्चर्यजनक प्रभाव होता है जिनका यौवन आ जाने पर भी मासिक रज-स्राव नहीं हो पाता, परन्तु इसके स्थान में एक तरह की खांसी होने लगती है और चेहरे पर पीलापन दिखलाई देता है। नवयौवन-काल में यह रक्तहीनता, पीलापन और खांसी इतनी आम तौर पर पाई जाती है कि प्रत्येक माता इससे परिचित होती है, और इस बात से डरती रहती है कि कहीं उसकी लड़की को यौवन-काल में यह रोग न सताने लगे। चिकित्सकों को ऐसी रोगिणी लड़कियों का इलाज करने का आम मौका पड़ता है। कभी-कभी यौवन के प्रथम मासिक धर्म में बहुत परिमाण में रज-स्राव होता है, उसके बाद बेहद कमजोरी हो जाती है, और यह क्रम कई साल तक ऐसे ही चलता है, तब जाकर नियमपूर्वक ठीक से मासिक होने लगता है। ऐसी हालत में ऐलोपैथ तो रोगिणी को बाकायदा लौह के कुछ-न-कुछ मिक्सचर पिलाते रहते हैं, वैद्य लोग लौह-भस्म देते हैं, परन्तु इनको जितना लौह दिया जाता है उतनी ही उनकी तबीयत बिगड़ती है। ऐसी हालत में शक्तिकृत फेरम मेटैलिकम लाभ देता है। परन्तु यह तभी लाभ देता है जब इसका मुख्य लक्षण मौजूद हो। इसका मुख्य लक्षण है: ‘अत्यन्त निर्बलता को साथ झुठी रक्तिमा का चेहरा’ – अर्थात्, कमजोरी के साथ चेहरे पर झूठी लाली।

(2) शरीर के जीवनप्रद-रसों की हानि से रोग – इस औषधि का एक मुख्य-लक्षण यह है कि जब शरीर से जीवनप्रद-रस निकल जाते हैं, देर तक रुधिर-स्राव हो जाता है, तब शरीर इतना क्षीण हो जाता है कि दुर्बलता हटाये नहीं हटती, शरीर स्वस्थ नहीं हो पाता, खाया-पीया शरीर को नहीं लगता, उसका शरीर में सात्मीकरण नहीं होता। देखने को तो रोगी स्वस्थ लगता है, गालों में गुलाब की-सी लाली भी दिखाई देती है, परन्तु अन्दर से वह अपने को खोखला अनुभव करता है। जीवनप्रद-रसों के, वीर्य, रुधिर आदि के अत्यधिक निकल जाने से अगर झूठी रक्तिमा के साथ दुर्बलता अनुभव होने लगे, तो फ़ेरम मेटैलिकम से लाभ होगा। जीवनप्रद-रसों के निकल जाने से निर्बलता का लक्षण चायना में भी पाया जाता है।

(3) गर्भावस्था में बिना मिचली के भोजन को जैसे-का-तैसा वमन कर देना – इस औषधि में कय तो होती है, परन्तु कय से पहले मिचली नहीं होती। यह ‘अद्भुत-लक्षण’ है। साधारणतौर पर कय से पहले जी मिचलाता है, परन्तु इसमें भोजन खाने पर बिना-जी मिचलाये सारा भोजन जैसे-का-तैसा निकल जाता है। रोगी भर पेट खा लेता है, और बाहर जाकर उल्टी कर देता है, और फिर खाने के लिये आ बैठता है। ऐसा लगता है जैसे पेट में पाचक-रस बिल्कुल नहीं है, पेट चमड़े की एक थैली है, उसमें भरा और उलट दिया। यह अवस्था गर्भावस्था में प्राय: देखी जाती है, परन्तु गर्भावस्था के बिना भी अगर कहीं यह लक्षण पाया जाय, तो इस औषधि की तरफ ध्यान जाना चाहिये। इसमें मिचली नहीं होती, कय होने से पहले चेहरे पर रक्तिमा झलकने लगती है। जिस आसानी से रोगी खाता है, उसी आसानी से खाये हुए को उलट भी देता है।

(4) कभी अत्यन्त भूख और कभी भूख का न लगना – क्योंकि रोगी के रक्त-वितरण में असंतुलन हो जाता है, इसलिये कहीं रक्त का ‘अतिसंचार’ और कहीं रक्त का ‘अभाव’ पाया जाता है। इसका पेट पर जब प्रभाव पड़ता है तब रोगी कभी भूख से व्याकुल हो जाता है, साधारण से दुगुना खा जाता है, कभी उसे भूख ही बिल्कुल नहीं लगती। जब भूख लगती है तब दुगुना खा जाने पर भी भूख नहीं मिटती, जब पेट शिथिल हो जाता है तब कुछ भी खाया नहीं जाता। पेट सदा बिगड़ा रहता है। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि मतली हुए बिना पेट में से सब निकल जाना इस औषधि का एक विचित्र-लक्षण है।

(5) बच्चों में मूत्र का टपकते रहना – रुधिर के असमान-वितरण का मूत्राशय पर भी प्रभाव पड़ता है। बच्चा जब तक खेलता रहता है उसके मूत्राशय में से मूत्र बूंद-बूंद टपकता रहता है और उसका कच्छा भीग जाता है। जब वह आराम से लेट जाता है तब हालत कुछ सुधरती है। उसका मूत्राशय इतना ढीला और थका रहता है कि मूत्र को रोक नहीं सकता, ज्यों ही वह आधा भरता है कि मूत्र निकलने लगता है। रुधिर के असमान-वितरण के कारण प्रत्येक अंग में शिथिलता का होना इस औषधि का चरित्रगत-लक्षण है।

(6) बहते पानी को देखकर चक्कर आ जाना – बहते पानी को देखकर रोगी को अपने को संभालना पड़ता है, नहीं तो चक्कर आ जाता है। अगर रोगी पानी के पुल पर से गुजर रहा है, तो नीचे नहीं देख सकता। लाइको में भी यह लक्षण है। ऊँचाई से नीचे उतरते समय भी व्यक्ति को चक्कर आ जाता है। यह लक्षण बोरेक्स में भी पाया जाता है।

(7) रजोधर्म के शुरू होने पर बीच में 2-3 दिन छोड़ कर रुधिर चलना – रुधिर के असमान-वितरण का रजोधर्म पर प्रभाव पड़ता है। समय से बहुत पहले, बहुत अधिक और बहुत देर तक रुधिर जारी रहता है, परन्तु रुधिर में लाली नहीं होती, पीलिमा, पनीलापन होता है, रोगिणी को इस समय बेहद कमजोरी होती है, और रजोधर्म के शुरू होने पर बीच-बीच में 2-3 दिन छोड़ कर रुधिर चलता है। इस समय रोगिणी के मुख पर झूठी लालिमा दिखाई देती है।

(8) शीत-प्रधानता तथा विश्राम से रोग-वृद्धि की प्रकृति – इस औषधि के विषय में इसकी प्रकृति पर विशेष ध्यान देना चाहिये। रोगी ‘शीत-प्रधान’ होता है, गर्मी से उसे राहत मिलती है। शीत-प्रधान होते हुए भी दर्द में उसे सर्दी ही पसन्द होती है। उदाहरणार्थ, गर्दन, चेहरे, दांत आदि के दर्द में उसे ठंड से आराम मिलता है। कॉफ़िया के विषय में भी हम लिख आये हैं कि वह भी शीत-प्रधान है, परन्तु उसमें भी दांत के दर्द में मुँह में बर्फ रखने से आराम मिलता है। शीत-प्रधान होने के साथ-साथ रोगी की तकलीफें विश्राम से बढ़ जाती हैं। धीरे-धीरे हरकत से, चलने-फिरने से उसे आराम मिलता है। परन्तु यह हरकत धीमी होनी चाहिये, तेज नहीं, हृदय की धड़कन में, दमे में तो यह एक ‘विलक्षण-लक्षण’ है, और इन रोगों में इस लक्षण के पाये जाने पर धड़कन और दमा भी फेरम से ठीक हो जाता है।

फेरम मेटेलिकम औषधि के अन्य लक्षण

(i) दमे या दिल की धड़कन में जब हरकत से आराम मिले – डॉ० नैश लिखते हैं कि अगर दमे, हृदय की धड़कन या अन्य किसी रोग में जिसमें साधारण तौर पर हरकत से रोग की वृद्धि होती हो, अगर रोगी को हरकत से आराम मिले, तो यह अद्भुत-लक्षण है, और इसमें फेरम से लाभ होगा।

(ii) दर्द में जब हरकत से आराम मिले – डॉ० नैश एक स्त्री का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उसका चेहरा पीला था, बाजू में दर्द था, उसे कई दवायें दी गई. आराम नहीं हुआ, अन्त में इस लक्षण पर कि उसे दर्द के समय रात को बिस्तर छोड़कर कमरे में आगे-पीछे फिरने से ही आराम आता था, फेरम मेट की 1000 शक्ति की एक मात्रा दी गई जिससे वह बिल्कुल ठीक हो गई। डॉ० नैश कहते हैं कि कई लोगों का विचार है कि धातुओं की शक्तिकृत मात्रा से लाभ नहीं होता, परन्तु उनका अनुभव है कि फैरम (लोहा), स्टैनम (टीन), जिंकम (जिंक) तथा प्लैटिनम की उच्च-शक्ति की मात्रा से उन्होंने अनेक रोगियों को ठीक किया है इसलिये यह समझना कि धातुओं की उच्च-शक्ति का रोग को दूर करने में कोई प्रभाव नहीं है, भ्रममात्र है। ऐसे रोग में जब हरकत से आराम की आशा तो न की जा सके परन्तु हरकत से आराम मिले, या जब हरकत से आराम होना ही मुख्य-लक्षण हो, तब फेरम का प्रयोग लाभप्रद है।

(iii) ज्वर में शीतावस्था में चेहरे पर रक्तिमा – डॉ० नैश का कथन है कि ऐसी औषधियां बहुत थोड़ी हैं जिनमें ज्वर की शीतावस्था में चेहरे पर रक्तिमा आ जाये। स्वभावत: शीत लगने पर चेहरा पीला पड़ जाना चाहिये। फ़ेरम का अद्भुत लक्षण यह है कि शीतावस्था में रोगी के चेहरे पर झूठी लालिमा आ जाती है।

(iv) उत्तर की तरफ सिर रख कर सोने से लाभ – डॉ० टायलर लिखती हैं कि जिस रोगी की नींद की शिकायत हो वह अगर उत्तर की तरफ सिर करके सोयेगा तो उसे अच्छी नींद आयेगी। इसके कारण का विवेचन करते हुए उनका कहना है कि शरीर में लौह की प्रभूत मात्रा रहती है। पृथ्वी में भी उत्तर-दक्षिण दिशा में भूगर्भ-चुम्बक है। शरीर को भूगर्भ-चुम्बक की दिशा में रख कर सोने से शरीर में संचार कर रहे रक्त के लौह के ‘अणुओं’ (molecules) पर भूगर्भ-चुम्बक का अनुकूल प्रभाव पड़ता है, वे एक ही दिशा में बहते हैं जिससे मस्तिष्क पर शान्तिदायक प्रभाव पड़ता है।

(10) शक्ति तथा प्रकृति – 2x से 6x; 30, 200 (कमजोरी की हालत में निम्न-शक्ति देनी चाहिये। औषधि ‘सर्द’-प्रकृति के लिये है)

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