Homeopathic Medicine For Pericarditis In Hindi [ पेरीकार्डियम होम्योपैथिक दवा ]

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विवरण – हृदय के चारों ओर एक पतली झिल्ली लिपटी रहती है, उसे ‘हृदयावेष्टन’ अथवा ‘पेरीकार्डियम’ कहा जाता है । इसमें शोथ उत्पन्न होकर प्रदाह होने को ‘हृदयावेष्टन-प्रदाह’ अथवा ‘हृदयावेष्टन-शोथ’ कहते हैं ।

यह रोग मुख्यत: चोट अथवा क्षय-रोग के कारण होता है । वात-रोग, सड़न के कारण उत्पन्न क्षय-रोग, टाइफाइड, डिपथीरिया, चेचक, सन्निपातिक-ज्वर, बहुमूत्र तथा मूत्रग्रन्थि-प्रदाह आदि के कारणों से भी यह बीमारी हो सकती है । प्लुरिसी, न्युमोनिया आदि के कारण भी हृदय इस रोग का शिकार बन जाता है ।

यह रोग निम्न तीन प्रकार का माना गया है :-

(1) नया तन्तु-घटित प्रदाह – ‘पेरीकार्डियम’ में अधिक तन्तु संचित हो जाने पर वह कड़ी हो जाती है, जिसके कारण हृदय के फैलते तथा सिकुड़ते समय हल्का-हल्का दर्द होता रहता है । साथ ही हल्का बुखार भी बना रहता है । इस रोग की तीव्रता प्राय: दो-चार दिन में ही कम हो जाया करती है ।

(2) रस-स्त्रावी प्रदाह – वात-रोग, क्षय, ज्वर आदि के कारण इस प्रकार का प्रदाह होता है । इसमें हृदयवेष्टनी के दो पर्दों के बीच में पीब अथवा रक्त-मिश्रित किसी प्रकार का स्राव होता रहता है। इस बीमारी में हृत्पिण्ड में छुरी मारने जैसा तीव्र दर्द, हृदय में एक प्रकार की बेचैनी, श्वास-कष्ट, ज्वर तथा नाड़ी का एक-सा न चलना आदि लक्षण प्रकट होते हैं । इस कष्ट के कारण रोगी दायीं करवट से नहीं सो पाता । इस रोग का भोग-काल निश्चित नहीं होता तथा इसे भयावह श्रेणी में रखा जाता है ।

(3) पुराना संयोजनशील-प्रदाह – यह दो प्रकार का होता है – (1) पहले प्रकार में दो आवरक पर्दे, आपस में सट (चिपक) जाते हैं तथा (2) दूसरे प्रकार में बाहरी पर्दा ‘फुफ्फुसावरण’ अथवा ‘वक्ष-प्राचीर’ से चिपट जाता है। इसका परिणाम अत्यन्त भयानक माना जाता है ।

चिकित्सा – इसमें लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियों का प्रयोग हितकर है ।

आर्निका 3, 30 – यदि हृदय-प्रदेश में चोट लगने के कारण यह रोग हुआ हो तो यह औषध लाभ करती है । हृदय-प्रदेश में ऐसा दर्द, जैसे उसे हाथ में पकड़ कर निचोड़ा जा रहा हो, अथवा सुई चुभने जैसा दर्द, दर्द की चुभन का बाँयीं ओर से दाँयी ओर को जाना तथा रात के समय हृदय कष्ट के कारण मृत्यु हो जाने का भय लगना-इन लक्षणों में इसके प्रयोग से बहुत लाभ होता है। थके हुए हृदय के लिए तथा हृदय में जान डालने के लिए यह औषध अत्युत्तम मानी जाती है ।

एकोनाइट 3, 30 – तीव्र ज्वर, तीव्र भय, बेचैनी, नाड़ी का चंचल होना, प्यास, कलेजा धड़कना, हृदय-प्रदेश में दबाव का अनुभव, साँस लेने में कठिनाई तथा सम्पूर्ण शरीर में पसीना आना-इन लक्षणों में हितकर है !

(1) मध्य-रात्रि से पूर्व त्वचा का गरम हो जाना. (2) अत्यधिक प्यास लगना तथा (3) भय लगना-ये तीनों लक्षण एक साथ प्रकट होते हैं तथा सम्पूर्ण शरीर पसीने से तर हो जाता है एवं घबराहट बढ़ जाती है। ऊँचाई पर चढ़ते समय हृदय पर गोली लगने जैसा दर्द होना, हृदय का धड़कना तथा सम्पूर्ण शरीर में गर्मी का अनुभव होना-इन लक्षणों में, और यदि चोट लगने के कारण रोग न हुआ हो तो सर्वप्रथम इसी औषध का प्रयोग करना चाहिए ।

ब्रायोनिया 3, 30 – यदि ‘एकोनाइट’ देने के बाद ऐसा तीव्र दर्द हो अथवा बना रहे कि वह जरा-सा हिलने-डुलने पर अधिक बढ़ जाता हो तो इस औषध का प्रयोग करना उचित रहता है। हृत्पिण्ड में सुई चुभने जैसा अथवा तोड़ डालने जैसा दर्द, ज्वर एवं तीव्र प्यास आदि लक्षणों में इसे ‘एकोनाइट’ के बाद देने से बहुत लाभ होता है ।

मर्कसोल 30 – यदि हृदयावरक-झिल्ली तथा छाती के मध्य-भाग में स्राव (Effusion) आ जाय तथा थोड़ा ज्वर भी हो तो इस औषध का प्रयोग करना चाहिए।

कोलचिकम 1x, 6 – यदि पुराने वात-रोग का इतिहास हो, हृत्पिण्ड का शब्द अस्पष्ट और अनियमित हो तथा नाड़ी मृदु एवं कोमल हो-इन लक्षणों के साथ ही, दर्द एवं बेचैनी के उपसर्ग भी हों तो, यह औषध हितकर सिद्ध होती हैं ।

कैक्टस 3, 30 – हृत्पिण्ड को किसी कड़ी वस्तु द्वारा दबाये जाने की अनुभूति में इसका प्रयोग हितकर रहता है ।

स्पाइजीलिया 3, 30 – अत्यधिक वेदना एवं हृत्पिण्ड से काटने जैसा तीव्र दर्द आरम्भ होकर बाँयें कन्धे तथा बाँह में होता हुआ अंगुली तक फैल जाय तो-इन लक्षणों में यह औषध लाभ करती है ।

आर्सेनिक 30 – यदि अन्य लक्षणों के हट जाने पर भी हृदयावरक-झिल्ली तथा छाती के मध्य-स्थान का स्राव बना रहे, तो इस औषध का प्रयोग करना चहिए। हृदय-रोग के कारण सीढ़ी न चढ़ सकना, सर्दी सहन न कर पाना, गर्मी से आराम का अनुभव, कमर के बल न लेट पाना, शौच जाने के बाद हृदय का धड़कने लगना, श्वास कष्ट, अत्यधिक बेचैनी, घूंट-घूंट पानी पीना, रोगी का एक जगह न टिक पाना आदि लक्षणों में इसका प्रयोग हितकर रहता है ।

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