इसका हिन्दी नाम गुरुच है। यह बहुत दीर्घकाल से हमारे देश में औषध रूप में उपयोग होता आ रहा है। एलोपैथी में भी ” एक्स्ट्रैक्ट-गुलन्च ” नामक एक पेटेन्ट औषधि का प्रचलन है। गुरुच प्लीहा बढ़ने के साथ पुराने ज्वर की एक प्रसिद्ध औषधि है तथा नाना प्रकार के ज्वर के लिए प्रस्तुत काढ़ों में यह व्यवहृत होता है। आयुर्वेद में – यह नए और पुराने ज्वर, कम्पयुक्त वात-ज्वर, पित्त प्रधान ज्वर, शीत-प्रधान कम्प ज्वर में जहाँ शरीर में जलन व पित्त की कै रहती है ; विषम ज्वर, जीर्ण-ज्वर, मेहजनित पुराने ज्वर और कामला रोग में – आँख-मुंह, शरीर पीले रंग का होने पर ; इनके अलावा – वात पित्त, कफ इत्यादि जिस किसी कारण से ही क्यों न हो कै होते रहने, छाती धड़कने, पीब की तरह धातु गिरने ( इसमें गुरुच के रस से अधिक फायदा होता है ), पुराने प्रमेह में ( इसमें दुर्बलता व धातु की पुष्टि के लिए गुरुच की चीनी अधिक लाभदायक है। )
बार-बार ज्वर होकर शरीर दुर्बल हो जाने पर, शुक्रक्षय जनित दुर्बलता में, वात-रक्त व कुष्ट रोग में, सब प्रकार के वात में और स्तन के दूध को शोधने के लिए यह सफलता के साथ उपयोगी है।
होम्योपैथी के मत से यह स्वस्थ शरीर पर अभी भी परीक्षित नहीं हुई है। नए मलेरिया में – जहाँ ज्वर सवेरे आता है और शीत, कम्प, पित्त कै, प्यास, सिर दर्द इत्यादि लक्षण सब उपस्थित रहते हैं, वहां तथा नाना प्रकार के वमन में और नए प्रमेह रोग में – जहाँ बार-बार थोड़ा-थोड़ा पेशाब होता है, उसके साथ जलन व पीब निकलती रहे, तो वहां इसका उपयोग करें।
क्रम – Q, 3x, 30 शक्ति।
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