विटामिन डी ( Vitamin D ) के स्रोत और फायदे

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विटामिन ए की भाँति विटामिन ‘डी’ भी तेल के रूप में होता है । इसको ‘एन्टीरेकेटिक विटामिन’ भी कहा जाता है। यह वसा में घुलनशील विटामिन है । इसका सम्बन्ध ‘रिकेट्स’ नामक रोग से है। जितना पुराना रिकेट्स का ज्ञान है, उतना ही विटामिन ‘डी’ का है । सत्रहवीं शताब्दी में इसका वर्णन एक अंग्रेज चिकित्सक ने किया था । 18वीं शताब्दी के अन्त में काडलीवर ऑयल का प्रयोग चिकित्सा जगत में किया जाने लगा । पहले यह समझा जाता था कि विटामिन ए और डी एक ही हैं, परन्तु बाद में ज्ञात हुआ कि यह दोनों भिन्न-भिन्न हैं। सन् 1923 में श्री ‘चिक’ ने बताया कि काङलिवर ऑयल, सूर्य रश्मि और मर्करी वेपर क्वार्टस लेम्प से रिकेट्स की चिकित्सा की जा सकती है । बाद में श्री ‘हयूम’ ने प्रमाणित किया कि – अल्ट्रा वायलेट किरणों द्वारा वसा में उपस्थित प्रवर्तक पदार्थ-विटामिन ‘डी’ में परिवर्तित हो जाता है ।

इस विटामिन का मनुष्य शरीर में स्वत: निर्माण होता है । इसके निर्माण के लिए सूर्य रश्मियों (किरणों) की आवश्यकता होती है। शरीर में त्वचा के नीचे एक विशेष रासायनिक पदार्थ उपस्थित रहता है जिसे ‘डी हाइड्रोक्सी कोलेस्ट्रोल’ कहते हैं। यह पदार्थ सूर्य रश्मियों में निहित शक्ति से, हमारे शरीर में विटामिन ‘डी’ के रूप में परिणित हो जाता है। इसके लिए आवश्यक शक्ति सूर्य रश्मियों में उपस्थित एक विशेष प्रकार की किरणें (अल्ट्रा वायलेट किरणों) से प्राप्त होती है। भारतवर्ष में सूर्य का प्रकाश खूब मिलने के कारण, इस देश में विटामिन ‘डी’ का स्वत: निर्माण खूब होता है और ग्रामीणांचलों में, जहाँ धूल-धुआँ नहीं होता है, वहाँ शहरों की अपेक्षा और भी अधिक अच्छा वातावरण है, वहाँ पर्याप्त मात्रा में सूर्य की किरणों से विटामिन ‘डी’ मिलता है ।

भोजन से भी विटामिन ‘डी’ का सम्बन्ध है । जो खाद्य पदार्थ पशुओं से प्राप्त होते हैं, उनमें यह मिलता है। शाक-भाजी में यह विटामिन नहीं होता है । पशुओं में भी सूर्य की किरणों का प्रयोग तथा उनके आहार से विटामिन ‘डी’ की मात्रा का सम्बन्ध है । जो पशु-पक्षी सूर्य के प्रकाश में रहते हैं उनके द्वारा प्राप्त खाद्यों में विटामिन ‘डी’ अधिक मात्रा में होता है। मक्खन, घी, अण्डा में यह विटामिन होता है। विटामिन ‘डी’ को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधन ‘काड लीवर ऑयल’ (मछली का तेल) है । काड लीवर ऑयल के 100 ग्राम (तेल) में 8100 से 30,000 तक अन्तर्राष्ट्रीय यूनिट विटामिन ‘डी’ प्राप्त होता है। हैलिबर्ट लीवर ऑयल के 100 ग्राम में 20,000 से 40,000 अन्तर्राष्ट्रीय यूनिट विटामिन ‘डी’ प्राप्त होता है। मुर्गी के अण्डे (एक सौ ग्राम पीतांश में) 140 से 390 अन्तर्राष्ट्रीय यूनिट विटामिन ‘डी’ प्राप्त होता है। दूध, मक्खन, क्रीम में भी विटामिन ‘डी’ की कुछ मात्रा होती है ।

विटामिन ‘डी’ एक स्थायी तत्त्व है जिस पर न तो उष्णता का प्रभाव पड़ता है और न ही खाना बनाने की विविध विधियों का । विटामिन ‘डी’ की एक अन्तर्राष्ट्रीय यूनिट 0.025 माइक्रोग्राम कैल्सिफेराल में निहित अस्थि विकृति प्रतिकारक क्षमता मानी गई है। मुख द्वारा आहार लेने पर जो विटामिन ‘डी’ का आत्मीकरण होता है, उसमें आँतों में अवशोषण के लिए पित्त की उपस्थिति अनिवार्य है । लिक्विड पैराफिन या दूसरे मिनरल तेलों में इस विटामिन के घुल जाने से यह आँतों से बाहर निकल जाता है।

सन् 1932 में ‘विंडस’ नामक वैज्ञानिक द्वारा आविष्कृत यह विटामिन ‘डी’ मनुष्य और जीवों में कैल्शियम और फॉस्फोरस की रक्त में नियमित रूप में रखती है । यह दाँतों और हड्डियों को मजबूत करने के लिए जरूरी है। इसकी कमी हो जाने पर बच्चों की हड्डियाँ नरम और कमजोर हो जाती हैं तथा कमजोरी के कारण हड्डियाँ टेढ़ी हो जाती हैं। परिणामस्वरूप बच्चे कुबड़े हो जाते हैं। बच्चों के दाँत देर से निकलते हैं, उनका कद (लम्बाई) छोटा रह जाता है। जहाँ सूरज नहीं पहुँचता है ऐसे अन्धेरे मकानों और गलियों में रहने वाले लोग, घूंघट और पर्दा करने वाली स्त्रियों में इस विटामिन की कमी होने के कारण ही उनके पेड़ू और पीठ की हड्डियाँ नरम और कमजोर होने के कारण टेढ़ी होकर कुबड़ापन उत्पन्न हो जाता है और उनको बच्चा उत्पन्न होने पर बहुत कठिनाई होती है । सर्द देशों में तथा सर्दी और वर्षा के दिनों में जब सूरज नहीं निकलता है तो मनुष्यों में इस विटामिन की कमी हो जाती है । जब धुप बहुत अधिक तेज और कष्टदायक न हो तो खुली वायु (बाग आदि में) कपड़े उतार कर बैठना लाभकारी है। यदि सूर्य की प्रात:कालीन किरणों में बैठकर सरसों के तेल की मालिश सम्पूर्ण शरीर पर की जाये तो इससे भी विटामिन ‘डी’ पर्याप्त मात्रा में मिलता है ।

थोड़े से वसा से उत्पन्न भोज्य पदार्थों में Ergosterol नामक एक तत्त्व पाया जाता है, जो सूर्य की नील लोहित (Ultraviolet) किरणों के पड़ने से विटामिन डी की उत्पत्ति कराता है । इसी प्रकार भोजन को यदि थोड़ी देर तक सूर्य की नील लोहित किरणों में रख छोड़ने से भी उक्त भोजन में विटामिन ‘डी’ थोड़ी मात्रा में उपलब्ध हो जाता है । शरीर में जब इस विटामिन की कमी हो जाती है तो अन्तड़ियाँ भोजन से कैल्शियम और फॉस्फोरस को चूसकर रक्त में नहीं मिला पातीं । ये दोनों अंश रक्त से निकलकर हड्डियों और दाँतों में शोषित होकर हमें शक्तिशाली बनाते हैं। विटामिन ‘डी’ श्वास रोग को दूर करने में भी लाभकारी है। पित्ती उछलना, हे फीवर तक इसके प्रयोग से दूर हो जाते हैं। विटामिन ‘डी’ की कमी गर्भवती स्त्री में हो जाने पर उसके जन्म दिये गये बच्चे के दूध के दाँत कमजोर हो जाते हैं उनमें शीघ्र ही कीड़ा लग जाता है और वे टूट जाते हैं। मनुष्यों में पर्याप्त मात्रा में विटामिन ‘डी’ मिलने पर उनके कमजोर दाँत ताकतवर हो जाते हैं और उनमें कीड़े नहीं लगते हैं ।

विटामिन ‘डी’ की अधिक कमी हो जाने पर 6 माह से डेढ़ वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों को अस्थि-शोथ (Rickets) और वयस्कों में हड्डियाँ टेढ़ी और नरम हो जाती हैं । गर्म देश होने के बावजूद भारतवर्ष में हड्डियों की कमजोरी का रोग बहुत अधिक है, क्योंकि यहाँ (भारत) के लोग गरीबी के कारण केवल अनाज ही खाते हैं, इसी कारण उनको अस्थिमृदुता का रोग अधिक होता है। चूँकि अधिकांश हिन्दू स्त्रियाँ अण्डे, माँस, मछली और प्रोटीन वाली खुराकें कम खाती हैं, इसलिए उनको भी यह रोग (अधिकतर) हो जाता है। शक्तिशाली भोजन न मिलने और बार-बार गर्भ हो जाने के कारण भी यह रोग हो जाया करता है ।

भारतवर्ष में हड्डियों की कमजोरी को दूर करने और विटामिन ‘डी’ की कमी को पूरा करने के लिए बचपन से ही मछली का तेल पिलाना जरूरी है। शिशुओं, गर्भवती स्त्रियों तथा दुग्धपान कराने वाली स्त्रियों को शार्क लीवर ऑयल आधा से एक चम्मच अथवा मछली के तेल के एक या दो कैप्सूल प्रतिदिन खिलाना चाहिएं। जवानी और बुढ़ापे में विटामिन ‘डी’ कमी से मनुष्यों के जोड़ों में दर्द होने लग जाता है और उनकी हड्डियाँ आसानी से टूटने लग जाती हैं और वे आसानी से जुड़ती भी नहीं हैं। विटामिन ‘डी’ की कमी से दुग्धपान करने वाले शिशुओं के सिर की हड्डी सिर के तालु में भली प्रकार नहीं भरती है और सिर के तालु में हड्डी न भरने के कारण गड्ढा दिखाई देता है। विटामिन ‘डी’ की कमी से बच्चे की खोपड़ी बहुत बड़ी और चोकोर सी होती है। ऐसे बच्चे के दाँत देर से निकलते हैं, बच्चे के पुट्ठे कमजोर हो जाते हैं। अजीर्ण, पेट फूल जाना, भोजन न पचना, दस्त आना, बिना कारण रोना, चिड़चिड़ा स्वभाव, चेहरा पीला पड़ जाना ये समस्त लक्षण बच्चे में विटामिन ‘डी’ की कमी को दर्शाते हैं । बच्चे की खोपड़ी यदि तीन मास की आयु के बाद भी नरम रहे तो यह विटामिन ‘डी’ कम होने का प्रमाण है ।

वयस्कों में हड्डियाँ नरम हो जाने पर प्रारम्भ में कमर और कूल्हों में दर्द होता है जिसके कारण रोगी को चलने में कष्ट होता है, रोग बढ़ जाने पर उसके पेड़ू की हड्डियाँ टेढ़ी और कुरूप हो जाती हैं जिसके कारण उसे सीढ़ियों पर चढ़ने में कष्ट होता है तथा हड्डियों में दर्द होता रहता है ।

शरीर में विटामिन ‘डी’ पर्याप्त मात्रा में होने पर चेहरा भरा हुआ, दाँत मजबूत, सफेद और सुन्दर, छाती चौड़ी और सुडौल, जाँघे और टाँगे मजबूत और सुन्दर होती हैं।

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